पुरश्चरण- 1 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
मित्र !
मेरी आँखों के दृष्टिपथ में
जहाँ तक मेरी दृष्टि जाती है
मुझे लगता है यह प्रकृति
किसी रमणीय अवगुंठन में सजी ढँकी
एक अद्भुत सत्य की तरफ
नित्य प्रति
इंगित करती रहती है.
उसकी चिद्प्रतीति से
बोध के स्तर पर
मैं रोज तर बतर होता रहता हूँ
कभी कभी मेरा स्थूल
मुझे किसी सूक्ष्म का
मूर्त प्रतिबिंबन-सा लगता है
इस क्षण रह जाती है
बस अस्तित्व की एक सघनता
अथवा किसी सघनता का सूक्ष्म.
पर हाय
पल दो पल का यह उन्मीलन
स्वप्नों की घड़ियाँ बन जाता है
पुरा अद्य अपरद्य
पुनः संघटित हो जाते हैं
फिर मेरे अंदर घटित होता है एक जन्म
और मैं बन जाता हूँ
जन्मों की एक अटूट श्रृंखला
फिर भी मेरे बोध की गहराई में
मेरी प्रतीति के छोरों को नापता
कहीं कुछ अंकुरित भी होता है
सृजन के अर्घ्य-सा सहज सरल
ढरक जाने को
क्षितिज के खुले संपुट में
उससे छिटकती किरणों के अंतरिक्ष में
एक किरण-सा हो रहने को.