पुरस्कार का खेल / अरुण देव
आओ पुरस्कार खेलें
इसलिए कि इसी से होकर यह मेरे पास भी आएगा
वरना क्या है
जो लिखा है और लिख रहा हूँ तुम्हें भी पता है
लिखता ही इसलिए हूँ
पहले तो किताबों पर लिखकर पटाया
फ़ोन कर इधर-उधर ख़बरें देता रहा
कहीं मँच पर सेट करवाया
कहीं व्याख्यान के लिए बुलवा दिया
किसी प्रकाशक से कह किताब निकलवा दी
खी-खी करता रहता हूँ
लार चुआता फू फा करता आता हूँ
पिछवाड़ा खुजलाता हूँ
ठण्डा पानी पीता हूँ
साहित्य की डाल पर बैठा हूँ
गिद्ध हूँ
नोच-नोच खाता हूँ
यह सब करके ही दो दर्ज़न पाया हूँ
पु पु
मैं करता हूँ तुम्हें पुरस्कृत
झाँटू मल राय के नाम पर
पादू परसाद सहाय के नाम पर
चू चु मुरब्बे सिंह के नाम से
तुम सम्पादित कर देना मुझे पर एक किताब
करना अपने कालेज में इसे लोकार्पित
निकाल रहे हो कोई पत्रिका
तो एक अँक मेरे पर एकाग्र बनता है भाई
डोण्ट वरी लेख भिजवा दूँगा
बहुत चेले, केले, हू हू हैं मेरे पास
देखो ये तो करना ही होगा
आख़िर पुरस्कार भी तो दिलवा रहा हूँ
मेरा नाम लेते रहना
मेरी लीद को नवनीत कहना
और खा लेना साले
नहीं तो क्या ?
मैंने तो गू तक खाया है
हाथी का खाया है
तुम चूहे की लेड़ी खाओ
ढोल बजाओ
बजाओ बे ।