पुरस्कार पाने वाले एक युवा कवि के लिए / प्रकाश मनु
तुम तो
कहां से कहां चले गए
अखिलेश भादुड़ी
और अभी कहां-कहां नहीं जाओगे
कि पूरी एक दुनिया पूरा जहां तुम्हारे सामने है
तुम्हारे पैर सभा भवनों की सीढ़ियों पर हैं
और रंगमहलों की ओर बढ़ना सीख रहे हैं
और हम तो कुछ भी नहीं
हम तो कहीं भी नहीं
हम तो अभी तक वहीं के वहीं हैं
अखिलेश भादुड़ी-उसी घूरे पर
जहां हमें देखकर
तुमने कभी तल्खी से चीखती हुई कविता में कहा था
-ये सुअरों में आदमी हैं
आदमियों में सुअर...
किसी नागयज्ञ की चिरचिराती गंध
वाली कविता से
यह हमारा पहला परिचय था-
घबराए हुए शब्दों वाली कविता
हड़बड़ाए हुए शब्दों वाली कविता
मुट्ठियां ताने, लपलपाते शब्दों वाली कविता
और तुम...
और अब जबकि तुम चले गए हो
हम अक्सर तुम्हें याद करते हैं
राजधानी से लौटते हर आदमी से
पूछ ही लेते हैं हालचाल
अखबारों में पढ़ते हैं हर साल
कहां से कहां चले गए तुम
क्या हुआ अगर तुम्हारी चिट्ठी नहीं आती
अखिलेश भादुड़ी
तो क्या हुआ-
तुम तो हमारे दिल में हो न
जब चाहा बात कर ली...
अक्सर कहीं से चोट खाकर आते हैं
तो पहले-पहल तुम्हीं से बतियाते हैं अखिलेश भादुड़ी
पता नहीं हमारी बातें
तुम तक पहुंचती भी हैं या नहीं!
वैसे भी सुना है, काफी व्यस्त रहते हो
सुना है, राजधानी में खासी धाक है तुम्हारी
साहित्यिक जगत के दादा हो माने हुए
सुना है, अकादमी भवन में तुम्हारी कविता पर
बैठकें होती हैं, बहसें होती हैं
कोई पुरस्कार का चक्कर है
सुना है, वहां जब भी जाते हो/आम आदमी पर
अंग्रेजी में सहानुभूति जताते हो
वे भाषण तुम्हारी आधुनिक बीवी रात-रात भर
जाग कर तैयार करती है
सुना है, आजकल गर्दिश के दिनों पर
किताब लिखने में बिजी हो
जो जब भी छपेगी
कम से कम ढाई सौ रुपए में बिकेगी
सभी लाइब्रेरियां दस-दस कापियां खरीदेंगी
दस-बीस हजार से कम मत छपाना अखिलेश भादुड़ी-
रायल्टी तगड़ी मिलेगी...
एक किताब तो हमें भी भेजोगे न,
भेजोगे मुफ्त...?
आखिर इतना तो हमारा भी हक है
बरखुरदार!!
हम तो जब भी सुनते हैं
खुश बहुत होते हैं अखिलेश भादुड़ी
कि चलो अपने बीच से कोई तो उठा...
और तुम्हें भी ज्यादा नहीं, तो थोड़ा-बहुत तो गर्व होगा ही
कि चलो बाप के घर से विद्रोह कर
इन मरभुक्खों के बीच गया
तो कुछ तो मिला...
गर्व हमें भी है
कि हम गरीब सही
मगर हम गरीबों की तकलीफें बेचकर
कमाई तो अच्छी-खासी होती है।
यह कोई अचरज है शायद
कि जब भी तुम याद आते हो
कविता में खोए होते हो
तुम्हारे तमतमाए गाल, होंठों पर पाश की लाइन-
‘‘कि दोस्तो ये कुफ्र हमारे ही वक्त मंे होना था!’’
तुम तो चले गए हो तो जाने क्यों
यही एक लाइन छूट गई है
हमारे तुम्हारे बीच किसी पुल की तरह-
मगर जाने क्यों इसके अर्थ बदल गए हैं,
इस लाइन के अर्थ क्यों बदल गए हैं अखिलेश भादुड़ी
कि दोस्तों ये कुफ्र हमारे ही वक्त में होना था!!
...हां, एक बात तो छूट ही गई
कल एक लड़का हमारे गांव आया था
यही कोई बीस-बाईस बरस का
संग में और भी थे दो चार-सभी में जोश, हाहाकार!
उसने भी तुम्हारी तरह नुक्कड़ नाटक किया था
और फिर आखिर में कविता पढ़ी थी सुलगते हुए
-बिल्कुल तुम्हारी तरह
और जब वह कविता पढ़ रहा था
मैं पूरे वकत धुआं ही निगलता रहा
और सोचता रहा इसका ढंग
तुमसे इतना मिलता जुलता क्यों है
अचानक उसकी शक्ल में एक काइयांपन उभरा था
काइयांपन-और तुम्हारा चेहरा-एक साथ!
और मैं कांप गया था
मैं कांप क्यों गया था अखिलेश भादुड़ी
मैं कांप क्यों गया था अगर उसकी शक्ल तुमसे
मिलती थी तो ऐसी क्या बात थी
लोगों की लोगों से शक्ल मिलती ही है
लोग तो लोगों की तरह ही होते हैं
लोगों के रस्ते ही जाते हैं
चाहे वे लड़ाका मार्क्सवादी हों या गोलमोल
अध्यात्मवादी, गांधी-अरविंदवादी
या तबलावादी चम्मचवादी गिरगिटवादी सांप-छछूंदरवादी
आंसूवादी प्यारवादी लिंगलकारवादी हंसिया तलवारवादी
दरअसल वाद तो सिर्फ वाद होते हैं
ये सब तो बिल्ल हैं न-सुविधा की मौजमस्तियां
सफल आदमी इन्हें चिपकाता है उतारता है
फिर चिपकाता है ठहर-ठहर कर
असल बात तो यही है न कि
सारे सफलतावादी एक ही राह जाते हैं
कितनी ही विरोधी क्यों न हो यात्राएं
आखिर वे पहुंचेंगे एक ही धुर!
हमारी छोड़ो...
हमारी भी क्या बात करते हो अखिलेश भादुड़ी?
हम तो कुछ हैं ही नहीं
हम तो कहीं नहीं हैं
तुम्हारे ही शब्दों में-
सुअरों में आदमी
आदमियों में सुअर...!
यह पुरानी कविता
अब भी पढ़ते हो क्या सभामंचों पर?
(एक जिज्ञासा है-बुरा मत मानना-)
पढ़ते हो तो
तुम्हारी आवाज हकला नहीं जाती,
और तुम्हारी आधुनिका बीवी/कुढ़ कर
नाक पर रूमाल नहीं रख लेती...!!
अब चलूंगा अखिलेश भादुड़ी...
चलता हूं...
ज्यादा बोलकर तुम्हारे बेशकीमती वक्त की
हत्या क्यों करूं?
याद आया, तुम तो ‘गर्दिश’ के दिन
लिखने में बिजी हो न!
वैसे एक बात कहना,
ये कविता और गद्द्-पद्द की छोड़ो,
असल में भी कभी हमारी याद आती है
ठीक वैसे जैसे हम पनीली आंखों से
तुम्हें याद करते हैं अखिलेश भादुड़ी
उंगलियों के पोरों पर तुम्हें याद करते हैं...
चलो न भी करो
मगर हम तो तुमसे चिपक ही गए-बहुत-बहुत भीतर तक
और यह कितना दिलचस्प है कि
चाकू से छीलो तो भी छूटेंगे नहीं हम
ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारी घरवाली
संेट की कितनी ही शीशियां छिड़के
हम पर लिखी कविता में
हमारे पसीने की बदबू आएगी ही...
और अकेले में
तुम्हारी हथेलियों से छूटेगा जो पसीना
उसके पाप-संताप
की दुर्गन्ध तुम्हारे नथुनों में जाएगी ही
क्योंकि वह तुम्हारी जिंदगी का जरूरी हिस्सा है
तुम्हारी रंग रोगनदार कोठी की तरह
तुम्हारी सस्ती महफिलों की रौनक,
मांस और बोटी की तरह!
चलते चलते
एक-दो छोटी-मोटी सूचनाएं कहो तो सुनाऊं
शायद उनमें तुम्हारी दिलचस्पी बची हो
या फिर तुम्हारे किसी काम ही आ जाएं...
याद है अखिलेश भादुड़ी, सरदारीलाल की
अरे वही दीवाना सा लड़का
जो दिन-रात भर तुम्हारे साथ शहरों, कसबों,
जंगलों की खाक छानता था
क्रांति के सपने बांटता था
सोचता था क्रांति आएगी
तो कहीं न कहीं हाथ भर जमीन उसकी भी होगी
(तुम यही तो बार-बार उसे समझाते थे)
अब वो नहीं रहा
कल सुबह
भगवानदास की बगीची में लटका देखा गया
था उसका शव...
वैसे भी तो मरगिल्ला हो गया था पूरा...उसे मरना ही था
और सरबतिया
जो पूरी आंखें खोलकर तुम्हें पीती थी
अब तुम बातें करते थे गांवों के सुधार की...
अब गूंगी सी भटकती है
वह किससे बोलती और क्यों...
तुम तो उसके पास अपना पता तक नहीं छोड़ गए
करीब छह महीने हुए
उसके साथ क्या-क्या हुआ उस बगीची में
सब जानते हैं कोई नहीं कहता
कि फिर कैसे वो फेंकी गई/कुएं में
कैसे निकली
तब से पैर घसीटते चलती है न रोती न हंसती
बस आसमान को घूरती है...घूरे चली जाती है...
खैर, तुम्हें इस सबसे क्या लेना
मैंने तो यों ही चलते-चलते जिक्र किया
शायद इसमें भी तुम्हें कुछ काम का दिख जाए
मोटा उपन्यास बन सकता है
पुरस्कार मिलेगा तो आमदनी भी क्या मोटी न होगी?
हम तो
जो हैं सो है अखिलेश भादुड़ी
सुअर की दुम...गधे की लीद...जाहिल,
अनपढ़ उजबकों की औलाद...
बुरा लगा-चलो कामरेड कह लो
(यह तो तुम्हारा सिखाया हुआ शब्द है न!
-मगर इतना तो हम भी जानते हैं
कि कामरेड और कामरेड भी तो
एक नहीं होते...!!)
बहरहाल हम तो
जो हैं सो हैं
मगर खुशी यह है
कि चलो कोई तो आगे गया
जिसे हम छूते, पहचानते, नाम ले-लेकर पुकारते थे
...और फिर मंजिल तक पहुंचने के लिए
कित्ती तो मेहनत करनी पड़ती है तुम्हें
कित्ती तो मेहनत कर रहे हो
गर्दिश के दिन लिखने के लिए...
कुछ हैं
जो आगे जाने के लिए ही होते हैं
तुम्हारी मंजिल तो शुरू से तय थी अखिलेश भादुड़ी
गलती हमारी ही थी
जो तुम्हें अपने बीच का आदमी समझे थे...