पुरातत्ववेत्ता: कवि और किरदार की सुदीर्घ यातना का सच / लीलाधर मंडलोई
शरद कोकास को मैं सिर्फ कवि के रूप में जानता होऊँ, बस इतनी बात नहीं। क्षेत्रीय शिक्षा महाविद्यालय भोपाल में हम एक साथ थे। अजीत चौधरी कवि के रूप में तब एक जगह बना चुके थे। शरद बिल्लोरे ‘साक्षात्कार’ में प्रकाशित कविताओं से चर्चा में आ गये थे। शरद कोकास के काव्य बीज अँखुआने का भी वही समय था। गाहे - बगाहे कविता पर उससे बातचीत होती रहती थी। उसके भीतर बेचैनी का एक गम्भीर वातावरण था। वैज्ञानिक चेतना की उसके मानस में बसाहट को तब सहज देखा जा सकता था। मूलत: मराठी भाषा के सामाजिक प्रभाव में होने की वज़ह से वर्तनी के उपयोग में उसकी सम्भावित चूकों के बारे में एक सम्वाद हमारे बीच हुआ करता था। भाषिक संरचना में शरद की कविताएँ प्रचलित काव्य भाषा से अलग होती थीं, जो मेरे लिए आकर्षण का विषय था। कविताओं की दुनिया में प्रवेश की हड़बड़ाहट को लेकर वह सतर्क था। वह एक अलग काव्य मुहावरे को पाने के लिए शांत ढंग से चुपचाप सक्रिय हुआ करता था। अतीत को एक पोएटिक डिस्टेंस के साथ पढ़ना उसकी काव्य प्रक्रिया का एक मूल्यवान कोण था। मुझे विश्वास था कि वह एक रोज़ अपनी गहरी उद्विग्नता में कुछ ऐसा ज़रूर अर्जित करेगा जो विश्वसनीय और रोमांचक होगा। कुछ इस ढंग से कि जो हिन्दी कविता में विरल और जुदा हो। सो अंतत: यह कविता "पुरातत्ववेत्ता"।
‘पुरातत्ववेत्ता’ - इस लम्बी कविता की जन्मकथा को जानना चाहें तो हम पाते हैं कि कवि ने ‘ बाबरी विध्वंस ‘ के बाद पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों की परोक्ष खरीद - फ़रोख्त के जो दुष्परिणाम देखे उनके घात- प्रतिघातों को अपनी चेतना पर गहरे तक अनुभव किया। कहना न होगा कि वह उन घात - प्रतिघातों को अनुभव करने वाला सिर्फ़ एक कवि न था। वह पुरातत्व विषय का एक गम्भीर विद्यार्थी था जिसने डॉ. वाकणकर के साथ अतीत पर जमी धूल को हटाने और उसके उत्स को समझने के लिए अनेक उत्खननों में हिस्सा लिया। उसने मार्क्सवादी इतिहासकार डॉ. भगवत शरण उपाध्याय के सान्निध्य में अपनी वैज्ञानिक समझ को एक रूपाकार दिया। अपने इतिहास बोध को सकारात्मक दिशा देने के लिए उसने प्रारम्भिक इतिहासकारों का गहन अध्ययन किया। तदुपरांत वह इतिहास की अवधारणाओं को समझने के लिए डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल, इरफान हबीब, रोमिला थापर के पूर्व राहुल सांकृतायन जैसे शीर्ष विद्वान और गैर पेशेवर इतिहास कारों के पास भी गया। उसने राहुल जी की ‘पुरातत्व निबन्धावली’ का अध्ययन जहाँ एक ओर किया वहीं डॉ. रामविलास शर्मा की इतिहास विषयक स्थापनाओं को भी आत्मसात करने का निरंतर कार्य किया। उसने ऐतिहासिक तथ्यों के साथ खिलवाड़ करने वाली ताकतों की साजिशों को भीतरी सतहों पर पकड़ने का एक ज़रूरी काम भी अंजाम दिया। गौरतलब यह है कि पौराणिक गाथाओं, धार्मिक आख्यानों, किंवदंतियों में वर्णित इतिहास सम्बन्धित भ्रांतियों को तटस्थ और वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषित करने की एक तैयारी शरद की शक्ति है। इसी के साथ वह ‘बाबरी विध्वंस‘ के बाद सक्रिय इतिहास विरोधी संरचनाओं में प्रवेश करता है ‘सच’ को अनावृत करने के लिए । वहाँ वह इतिहास और मिथक के एकीकरण की नापाक कोशिशों की शिनाख़्त करता है और ‘लोकप्रिय इतिहास लेखन’ की प्रवृत्ति को ध्वस्त करने की राह को खोजने निकल पड़ता है। इस कठिन मार्ग पर धर्म, ईश्वर, आस्था, परम्परा, आदि के सवालों से वह पुरातत्ववेत्ता की तरह ‘ कालक्रमानुसार ‘ जूझता है। इस तरह वह अपनी दृष्टि को एक धार देता है। यह दृष्टि धर्म और विज्ञान की जुगलबन्दी से भरमाते समाज को इस कविता में आगाह करती है। वह पुरातत्ववेत्ता के निरपेक्ष व्यक्तित्व के आलोक में इस कविता में अपने कवि होने को प्रमाणित करता है।। शरद इस विषय पर लिखत हुए ‘आउटसाइडर’ होने के खतरों से न केवल बचता है बल्कि उसकी तैयारी कविता में इस बात का साक्ष्य है कि उसका पुरातत्व का सिर्फ विद्यार्थी होना पर्याप्त नहीं अपितु कविता में इस विषय के साथ प्रवेश करने के लिए इतिहास और पुरातत्व की विश्व संरचनाओं को समझना अपरिहार्य है। और यह काम उसने अपनी क्षमता भर किया है। उसका सत्य की खोज में कालखंडों में विचरण इस कविता में सहज देखा जा सकता है। वह इतिहास में जहाँ ‘सचमुच कुछ नहीं’ था, से एक अर्थवान यात्रा का आवाहन करता इस कविता में हमें चमत्कृत करता है।
बहुत मुमकिन था कि ‘पुरातत्ववेत्ता’ पर कविता लिखते हुए शरद या तो अमूर्तन का शिकार हो जाता या फिर सपाट आख्यान के वृत में टहलता रह जाता। लेकिन इस युवा कवि ने अपनी कविता को ‘हर पल बीतने में अतीत के विस्तार’ की ऊपर से दीखने वाले सरल विचार की गझिन अन्तर्तहों से अपनी यात्रा शुरू की। इस यात्रा में दक्षिण से आती हवाओं का, मनुष्य की देहगन्ध का, स्मृति आख्यानों का, पृथ्वी के गर्भ गृह में घटित गतिशीलताओं का, स्पार्टकस की देह से टपकते लहू का, ट्राय के युद्ध में मृत सैनिकों के ग़ायब कंकालों का, खजूर के बागों से आती गुड़ की महक का, बच्चों की करुण ध्वनियों का, स्त्रियों के रोने के स्वरों का, मनुष्य की स्मृति में पीड़ा और अवसादों का, स्वप्नों में उठती चीखों का, बलि में चढ़ाये गये बैलों के धड़कते मांस के लोथड़ों का,भूत - प्रेत, जिन्नात और देवताओं की भ्रांत कथाओं का, दज़ला-फरात के दोआब में लहलहाती फसलों का, जंग और साज़िशों के लोमहर्षक किस्सों आदि को जिस तरह काव्यात्मक इन्दराजों की प्रक्रिया में एक एपिकल योजना में पुरातत्ववेत्ता की वैज्ञानिक आस्थाओं को देखा है, उसे एक युवा कवि की अविश्वसनीय पहल की तरह पढ़ा जा सकता है। इस प्रक्रिया में जब वह लिखता है –
इतिहास तो दरअसल माँ के पहले दूध की तरह है
जिसकी सही ख़ुराक पैदा करती हमारे भीतर
मुसीबतों से लड़ने की ताकत
तो वह वस्तुत: ‘सही ख़ुराक’ को आलोकित कर यह बताना चाहता है कि इतिहास को व्याख्यायित करने के लिए पुरातत्ववेत्ता को कितना सटीक, कितना वैज्ञानिक होना अपेक्षित है। इस कविता के अनेक घुमावदार और बीहड़ मार्गों में भटकने के अनेक मौकों के बीच भी कवि एक निरपेक्ष मानस के साथ जो संतुलन बनाता है, वह किसी भी बड़े कवि के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है।
इस कविता में ‘पुरातत्ववेता‘ की तैयारी और क्रिया- कलापों के अध्ययन में हम पहली बार इस सत्य से रूबरू होते हैं कि उसके भीतर भी इन्द्रियों का कार्य- व्यापार, रूप, रस, गन्ध, स्वाद आदि को लेकर एक मनुष्य की तरह सक्रिय है अर्थात भटकावों के अशेष आकर्षण। किंतु वह चेतन पर अवचेतन को हावी नहीं होने देता। वह एक कवि की तरह घटित आपदाओं का सिर्फ शोक नहीं करता। खो गई धड़कनों, सुरों, शब्दों से परे वह धरती के वर्णित अभिशापों में उतरकर ‘सही-सच’ की पंक्तियों को लिखने में समर्पित रहता है कि ‘हताशा की गहराइयों में दबा-छुपा समय’ एक यथार्थ रूप ग्रहण कर सके। वह इतिहास की कुचेष्टाओं का बन्दी होने से अपने को हर पल बचाता है। उसे अपनी प्रजाति में किसी अन्य से कहीं अधिक आधुनिक मानव की शर्तों पर खरा उतरना है। ‘विलुप्त ज्ञान‘ की खोज उसके जीवन का अंतिम लक्ष्य होता है। वह इस तथ्य से वाकिफ़ है कि कहीं अधिक स्वतंत्र होते हुए भी वह स्वतंत्र नहीं कि ‘अंतिम सच’ का उत्खनन एक अत्यंत जटिल काम है। उसके लिए तो इतिहास में स्थापित सत्य से उलट है ‘खुद अपनी पैरवी करते ब्योरे‘ कोई भी अयाचित ब्योरा बदल सकता है इतिहास की अब तक की अवधारणाओं को। इसलिए वह सदैव सक्रिय रखता है अपनी ‘ज्ञान आँख‘। भरोसा नहीं कर सकता वह समाज में वर्णित अन्धविश्वासों के धार्मिक किस्से कहानियों पर। वह जानता है कि ‘ अंत का अर्थ सब कुछ समाप्त हो जाना नहीं‘। और ‘भविष्य के लिए प्रस्थान बिन्दु है विगत का हर क्षण‘। मृत देह उसके लिए घोषित मृतक नहीं, न बुझा हुआ चूल्हा एक समाप्त प्रसंग। कुछ भी इस अर्थ में समाप्त नहीं एक पुरातत्ववेत्ता के लिए । ‘टाइम ओवर‘ का अंतिम विचार उसके जीवन से बाहर है। विगत के आततायियों के घोड़ों की टापों को वह अब भी सुनता है, किसी शिल्पकार की अधूरी रचना में छुपी उसकी उँगलियों के स्पर्श को वह अब भी चीन्हता है, अधपके चांवल की सुगन्ध उसके नासापुटों को अब भी घेरती है, पेड़ों की चीख और नदियों का रूदन वह अब भी गुनता है। उसके पास इस दुनिया के विगत का एक ऐसा ‘निगेटिव्ह‘ है जो अभी धुलने को है। जिसे वह भरपूर सन्देह में पढ़ता है। उसे हरदम लगता है कि उसके अभी तक पढ़े हुए में कहीं उसके आँख और दिमाग़ की कोई साज़िश तो नहीं कि वह प्रायोजित पाठ का अंग हो जाए । वह इसलिए अपने पढ़े को फिर-फिर पढ़ता है। वह अपने ज्ञान के दम्भ को खारिज करता है। महत्वाकांक्षा को पीट-पीट कर अपने भीतर से बाहर फेंकता है और शोहरत के सभी दरवाज़ों को बन्द करता है। उसके निस्पृह होने में ही उसके काम का महत्व है। क्या किसी दुरुह विषय में इतनी गहराई और विवेक के साथ किसी कवि की पैठ सम्भव है? क्या सिर्फ़ किताबी पाठ से यह ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ मुमकिन है? अध्ययन और पाठ के आगे प्रत्यक्ष अनुभव ही इस अभिव्यक्ति का ठोस आधार हो सकता है। शरद अगर इसे मूर्त करते हुए दीखते हैं तो इन सभी खूबियों का इसमें खूबसूरत योग है। इस योग के ठीक भीतर एक कवि है अर्थात पुरातत्ववेत्ता के भीतर एक कवि - शरद कोकास।यह कवि हमें बताता है पुरातत्ववेत्ताओं के आत्म के बारे में कि किस तरह ‘ बूढ़ी धरती की छाती में अटकी खाँसी की एक आवाज़ / दिमाग़ के दरवाज़े खटखटाती है उनकी बेचैनी में / उन्हें उदास करती है खामोश हो चुकी एक किलकारी / चीख में तब्दील हो चुकी आल्हा की एक तान / ध्वस्त कर देती है उनकी देह के समस्त आरोह अवरोह / हड़बड़ाकर उठ बैठते हैं वे अपनी बदहवासी में / जब कोई मासूम हँसी रूदन के स्वरों में देती है सुनाई“ और उन्हें इन तमाम दु:खों से गुजरते हुए बचे रहना होता है एक मनुष्य और एक कवि से अधिक धैर्यवान, अधिक सचेत और एक तटस्थ वैज्ञानिक। इसलिए वे मानव वैज्ञानिक हैं।
दरअसल यह कविता किसी पुरातत्ववेत्ता के जीवन का आख्यान नहीं बल्कि यह शेष-अशेष सभ्यताओं को वैज्ञानिक तार्किकता के साथ पुन: पुन: जानने की असमाप्त कथा है। यह उत्खनन में प्राप्त वस्तुओं के अध्ययन- विश्लेषण की प्रविधि का कोई खुलासा भर नहीं अपितु सभ्यताओं के उत्स से पहले छूटे सिरों को जोड़कर एकदम अप्रत्याशित सच तक पहुँचने की गम्भीर और तक़लीफ देह प्रक्रिया है। कवि हमें बताता है कि -
“अपनी धड़कन से भी ज़्यादा साफ़ आवाज़ में
सुन रहे हैं पुरातत्ववेत्ता
उर की कब्र में ज़िन्दा दफ़्न किए सेवकों की सिसकियाँ
गीज़ा के पठार में हवा के तेज़ झोंकों से उड़ती है रेत
काली उदासी में सफ़ेद सी चमकती है
बोझ से टूटे हुए जिस्म में कूल्हे की एक हड्डी
फिर नज़र आती है कोई कशेरुका
धीरे धीरे मजदूर का टूटा हुआ हाथ निकल आता है ...... “ और यह अंश
“सिर्फ़ रेत और हवा के बीच नहीं उपस्थित होता समय
समुद्र तल में जहाँ रेत की परत के नीचे
कल्पना तक असंभव जीवन की
शैवाल, चट्टान, सीप, घोंघों और मछलियों के बीच
चमकता है अचानक एक विलुप्त सभ्यता का मोती
पीठ पर ऑक्सीजन सिलेण्डर और देह पर अजीब
गोताखोरी की पोशाक पहने पुरातत्ववेत्ता
कछुओं से गुम हुए जीवन का पता पूछते हैं“
तो इस तरह यह कविता पुरातत्ववेत्ता के निस्पृह आत्म-संघर्ष का एक महा वृतांत है जिसे शरद कोकास जैसे अल्पख्यात युवा कवि ने रचा है।
शरद अपनी इस सुदीर्घ कविता में पुरातत्ववेत्ता के जीवन की विडम्बनाओं का एक मार्मिक पाठ भी तैयार करता है जिसमें सत्ता के हस्तक्षेप और अनवरत दबावों का यथार्थ है। वह उसके समाज और अकेले पड़ जाने की पीड़ा तक भी पहुँचता है – “ इधर भीड़ के बरअक्स अकेले हैं पुरातत्ववेत्ता / समाज के होते हुए भी समाज के नहीं जैसे / और परिवार में उस अजनबी की तरह / जो जाने किस ज़माने की बात करता है / जैसे किसी टाइम मशीन से आया हो निकल कर / बैठा हो चुपचाप नएपन की चकाचौन्ध में “। एक पुरातत्ववेत्ता की असमाप्त पीड़ा से जुड़ती यह कविता उसे मात्र आख्यान होने की ज़द से बाहर निकाल कर ही कविता के शिल्प में मज़बूती से बड़ी होती है। समय और इतिहास की लगातार और ख़त्म न होने वाली परिक्रमा में यह संस्कृति और सभ्यता को नये अर्थों से सम्पृक्त करती है।
पुरातत्ववेत्ता द्वारा प्रयुक्त सन्दर्भों, शब्दावलियों, नामों और इतिहास प्रसिद्ध चरित्रों के सहज सम्भव भार के बावज़ूद शरद ने अपनी काव्यभाषा और मुहावरे के बल पर इस कविता को जिस काव्यात्मक ढंग से सम्भाला है उसे इस अर्थ में अनूठा कहा जाएगा कि यह विषय इस तरह कविता में अन्यथा कदाचित कठिन था। क्योंकि यह कविता इतिहास, धर्म, किंवदंतियों, क़िस्सों के सीमातीत फलक पर जिस गति से भ्रमण करती है और अवकाशों को एक हद तक ख़ारिज करती हुई वह असाध्य और अकल्पनीय है। ठीक कविता के नायक पुरातत्ववेत्ता की तरह जिसके लिए यह असमाप्त भूमिका तय है कि वह ---
ऐसा हो कि पहुँच जाएँ अज्ञान के उस युग तक
जहाँ न कोई संकेत था न लिपि न भाषा
न धर्म न उत्पीड़न
जहाँ न कोई ईश्वर था न कोई विश्वास
न आस्थाएँ न भय
जहाँ न भूख थी न मनुष्य था न कोई जीव
ऐसा हो कि पहुँच जाएँ अकस्मात के उस दिन तक
कोई अस्तित्व नहीं था जब इस पृथ्वी का
ग्रहों के अधीनस्थ उपग्रह भी नहीं थे
न ग्रह थे कहीं सूर्य के चाकर
न सूर्य थे कहीं सौरमंडल में
घना अंधकार भी नहीं था लुप्त तारों के बीच
फ़िर ऐसा हो कि पहुँच जाएँ आश्चर्य की उस घड़ी तक
जिसमें न अंतरिक्ष का जन्म हुआ था
न दृष्टि की क्षमता का पर्याय आकाश था
न बृह्माण्ड था कोई अपनी संकल्पना में
न आकाशगंगाएँ बिखेरती हुई अपनी छटाएँ
बस निवेदन फ़कत इतना कि
कहीं आरामगाह में आराम करते वक़्त के साथ न ठहर जाएँ
चलते चलें पुरातत्ववेत्ता उस घड़ी तक पहुँच जाएँ।
कविता के कई पाठ के बाद यह तो तय है कि हम एक नये विषय के साथ यात्रा करते हुए एक जुदा रोमांच से गुजरते हैं। हम पाते हैं कि इसमें पुरातत्ववेत्ता के असमाप्त अलिखित असाध्य कर्म की दुरूह अभिव्यक्ति है। इसमें हो चुकने या किए जाने के बाद भी एक छुपी हुई गत्यात्मक कार्रवाई है। एक निरंतरता में प्रचलित स्थापित सच का पुनर्लेखन। यह कविता जहाँ पुरातत्ववेत्ता की सुदीर्घ यातना का प्रकाशन है वहाँ स्वयं कवि का भी। इसे पढ़ते हुए आप सभ्यताओं की यात्रा पर निकलते हैं। यह गौरतलब है कि इतिहास के ढेरम-ढेर सन्दर्भों से यह कविता बाज़-दफ़ा लदी-फदी या कहें बोझिल लग सकती है लेकिन पुरातत्व का अनिवार्य सम्बन्ध इतिहास से है। यह और बात है कि वह प्रथम नागरिक है और इतिहास द्वितीय। किंतु इस द्वितीय का हरहमेस प्रथम के ‘सच’ को झुठलाने की असमाप्त प्रक्रिया प्रथम को उससे जूझने के अलावा कोई विकल्प नहीं देता। इसलिए ‘पुरातत्ववेत्ता’ कविता अपने होने में इतिहास, धर्म, मिथक, किस्से-किंवदंतियों को अपने लेखे-जोखे में लिए बगैर आगे नहीं बढ़ती। वह अपने भीतर के वैज्ञानिक के अलावा किसी और की नहीं सुनती। इसलिए हर वस्तु को प्रथमत: और अंतत: एक वैज्ञानिक की तरह देखती, छूती, समझती और विश्लेषित करती है।
शरद कोकास की इस कविता में काल क्रमानुसार इतिहास की दुर्गम यात्राएँ हैं उसे तरतीब देने के लिए , सही अर्थ तक पहुँचने के लिए । मुमकिन है कि इस कविता से लोगों को असहमतियाँ हों विशेषत: धर्म, ईश्वर, संस्कृति के कुछ पहलुओं के विरोध को लेकर लेकिन यही वह शक्ति है जो कविता के पक्ष में खड़ी होती है।
‘पहल‘ के माध्यम से इस अल्प परिचित कवि का यह प्रकाशन एक साहसिक पहल है
-- लीलाधर मंडलोई