पुरातत्ववेत्ता / भाग 5 / शरद कोकास
इधर भीड़ के बरअक्स अकेले हैं पुरातत्ववेत्ता
समाज के होते हुए भी समाज के नहीं जैसे
और परिवार में उस अजनबी की तरह
जो जाने किस ज़माने की बात करता है
जैसे किसी टाइम मशीन से आया हो निकलकर
बैठा हो गुमसुम नयेपन की चकाचौंध में
(मैमथ हाथी से भी बड़े जानवर हुआ करते थे और आदिम मनुष्य झुण्ड में उनका शिकार करता था, अकेले व्यक्ति के बस की बात नहीं थी उनका शिकार करना, जो झुण्ड से बिछड़ जाता था, जंगली जानवरों द्वारा मार दिया जाता था।)
इतने उपेक्षित नहीं वे न इतने नासमझ
कि आधुनिकता के बहकावे में आकर भूल जाएँ अपना धर्म
जो जोड़ता है मनुष्य को मनुष्य से
भविष्य के अनदेखे रास्तों पर दौड़ता मनुष्य
उन्हें अपना दोस्त समझे न समझे
वे दोस्त हैं उस अकेले आदमी के
जो हज़ारों साल पहले किसी मैमथ के पीछे भागते हुए
बिछड़ गया था अपने झुंड से
खो गया था मौत के जंगल में कहीं
कि उस वक़्त कोई नहीं था उसके क़रीब
शायद वक़्त के सुनसान में वह फिर मिल जाए
तो पूछ लें कहाँ छूटा था उसका पत्थर का कुल्हाड़ा
जैसे किसी रात तलब की इंतहा में
लगता है कहीं दिख जाएँ दिवंगत पिता
तो पूछें उनसे अपनी मासूमियत में
कहाँ छुपाई है अपनी तम्बाखू की डिबिया
और वह छाता
जिसने भीगने से बचाया था हमारा बचपन
दु:खों की बेहिसाब बारिश में
वह छाता किसके घर भूल आए हैं
काश ऐसा होता कि लौट आता बीता हुआ हर क्षण
जैसे कि लौट आती है साँस हर बार
लेकिन उसी तरह नहीं आती वह उस रूप में
जिस तरह कि आदमी लौटकर नहीं आता वही
और पश्चाताप केवल चित्र होते हैं अकृत के
जो अन्तिम बार मुँदने से पहले उतर आते हैं आँखों में
सनातन के कानों में गूंजता है पुरातन का सवाल
क्यों तुमने किया ऐसा क्या तुम्हें पता नहीं था
एक दिन यही हश्र होना है तुम्हारा भी
जीवन के ऐसे तमाम प्रश्नों से जूझते हैं पुरातत्ववेत्ता
इसलिए वे खुद बनाते हैं अपने रास्ते
जिन पर चलते हुए दृढ़प्रतिज्ञ हैं वे
प्रतिबद्ध हैं अपने ठोस विश्वासों में
कि उन्हें पता है एक दिन
झूठी आस्था का विश्वसनीय मार्ग बंद हो जाने के बाद
भविष्य उन्हीं के बताए रास्ते से जाएगा
इस तरह दुखी नहीं वे अपने अपमान पर
जैसे शिकार न मिलने पर दुखी होता था आदमी
महसूस करता था खुद को भूख के हाथों अपमानित
चलता चला जाता था धैर्य की पगडण्डियों पर
इस तरह नहीं चल रहे वे किसी ज़िद में
ठहर भी नहीं रहे किसी ज़द में
मनुष्य की चिंता में उतर रहे धैर्य की रस्सी लिए
देख रहे सुख की नींव के नीचे छुपी दुख की एक नींव
बुलंदी की छत के नीचे बनी बेईमानी की एक छत
साहस की दुनिया के नीचे बसी ख़ौफ़ की एक दुनिया
जो यकीनन धर्मग्रंथों में वर्णित पाताल नहीं है
जो तथाकथित राक्षसों की नहीं मनुष्यों की दुनिया है
जिसमें उपस्थित नीतियाँ जो मनुष्य ने बनाईं थीं
आदमी और हालात के बीच रिश्ते तब भी थे
जब उस दुनिया मे स्पंदन था
वे अब भी हैं
जब यह दुनिया उनके होने का प्रमाण मांग रही है
पृथ्वी की कोख से हर बार जन्म लेती थी वह दुनिया
और सोंठ के लड्डू ख़त्म होने भी न पाते
उससे पहले ताकत के हाथों वह खत्म कर दी जाती
कि उसके ख़त्म होने में ही दूसरी का जीना था
इतनी बड़ी भी न हो पाती वह
कि स्मृतिशेष रह सकें
उसकी किलकारियाँ और घुटने - घुटने चलने के दृश्य
कई दुनिया और भी थीं उस दुनिया जैसी
जो हर इंसान में थीं और पृथ्वी के अलग - अलग भूभागों में
जिनकी हर साँस में मृत्यु का भय था
अपमान का प्रतिकार था वहाँ और विरोध की चीख
मेहनत की कुछ पगडण्डियाँ थीं उस दुनिया में
जो राजमार्गों तक पहुँचकर ठिठक जातीं
और उन पर दिखाई देते खून सने पाँवों के लौटते निशान
धुआँ उठता हर शाम छप्परों से और रोटी की गंध
हंडिया में पकती दालें लहसुन की छौंक लिए
और सब्ज़ियों में गज़ब का स्वाद कि वल्लाह
वहीं सिलबट्टे पर पिसी चटनी के चटखारे से नावाकिफ़
चाँदी की तश्तरियों में सजे मेवों की मिठास
फिर भी अपने भाग्य पर इतराने के लिए
और मनुष्य योनि में प्रसन्न रहने के लिए
काफ़ी नहीं था सुख का यह खोखला रूपक
दीवारें कमज़ोर थीं झोपड़ियों की और मन की
उम्र सी हर कभी ढह जाने का अंदेशा लिए
पसीजती रहतीं भय की बरसात में
वहीं मज़बूत दीवारों के भीतर गाया जाता मेघ मल्हार
राग दीपक माचिस की तरह काम करता था जिनके शासन में
सीली हुई तीली सी ज़िंदगी थी उनकी प्रजा की
बाढ़ बहा ले जाती लहलहाती फसलों के ख़्वाब
सूखा छीन लेता हर चेहरे का आब
बमुश्किल अन्याय का बोझ उठाने वाली कमर
पूरी तरह टूट जाती करों के बोझ से
हर रात सड़कों पर निकलते क्रूरता के प्रतिनिधि
छीन ली जातीं रोटियाँ, बेटियाँ उठा ली जातीं
वहीं मवेशियों की तरह हाँकते जनता को पुरोहित
बाँटते मोक्ष के आश्वासन ईश्वर से साँठगाँठ कर
जनता की कल्पना में स्वर्ग होता और नर्क यथार्थ में
घूमता हर एक लिए अपने - अपने भगवान
अपने हठ में सिद्ध करना चाहता उन्हें
दूसरे के भगवान से ज़्यादा ताकतवर
यह अतीत का गौरव नहीं न संस्कृति का अभिमान
जो पुरातत्ववेत्ताओं के सीने में धड़कता है दिल बनकर
वह दिल जिसे शरीर विज्ञानियों की भाषा में
एक पंप कहा जाता है महज़ खून फेंकने वाला
नख़लिस्तान से आती गीली और ठंडी हवाएँ
और ज़रा भी नहीं ठंडक उनमें और ताज़गी
कि आराम दे सकें उन आँखों को
जो जल रहीं हवन के धुएँ से या प्रदूषण से
गर्व से चौड़ा भी नहीं होता उनका सीना
सुनकर कि रामराज्य में ताले नहीं होते थे ज़ुबानों पर
शर्म से डूब भी नहीं जाते वे
जयचंदों, मीरज़ाफ़रों और रावणों के प्रस्तुत बिम्ब में
कि सिर्फ़ उन्हें पता है हर मंच का नेपथ्य
(नखलिस्तान, रेगिस्तान के बीच स्थित उस प्रदेश को कहते हैं जहाँ धरती के नीचे जल का स्त्रोत होता है, यहाँ नमी होती है फलस्वरूप बाग़ बगीचे होते हैं तथा खजूर के पेड़ पाए जाते हैं।रेगिस्तानी रास्ते यही से होकर गुजरते हैं तथा इसके आसपास मनुष्यों की बसाहट होती हैl)
इसे मुहावरे की तरह भी लिया जाए अगर
और अर्थ की चादर में अनर्थ के छेद न किए जाएँ
तो मुर्दों की पलकों पर जमी धूल के साथ - साथ
जीवितों की पलकों पर जमी अज्ञान की गर्द वे झाड़ते हैं
फाड़ते हैं दिमाग़ और आँखों के बीच पड़ा पर्दा
अभिलेखों पर जमी अपठनीयता की शर्म हटाकर
पढ़ते हैं दानपत्रों की भाषा
आज महाराज ने दरबार में कवियों का सम्मान किया
आज महाराज की प्रशंसा में कविता लिखी गई
अपनी प्रशंसा सुनकर महाराज बहुत खुश हुए
आज महाराज ने कवियों को सौ गाँव दान में दिए
तीसरे पहर के बाद टीले के पीछे जब डूब जाता है चाँद
खो जाते सारे विरोध नींद के आगोश में
एक ढोल निकलता ज़मीन की तीसरी परत से
हवा में लहराता एक हाथ जैसे दुख लहराता
विवशता के सन्नाटे में गूँजती अहंकार की मुनादी
सुनो सुनो सुनो सभी प्रजाजन ध्यान से सुनो
राजा मनुष्यों के प्रिय राजा देवताओं के प्रिय
हमारे राजा सबसे महान उनका राज आलीशान
हर प्रशस्ति के अपने विश्लेषण अपने ध्वन्यार्थ
राजतन्त्र का गुणगान उसमें सतयुग का गुणगान
आरक्षित स्थान सदा राजा के लिए स्वर्ग में
प्रजा हमेशा की तरह पीड़ा के घर में रहने को विवश
भाषा विज्ञानियों की बहस में अभिलेखों के शब्द
इतने रहस्य उनमें कि ऊब ज़्यादा और मज़ा कम
अनभिज्ञ हैं पुरातत्ववेत्ता दान पाने वालों के नाम से
सरकारी रिकार्ड में हैं जिनके वंशजों के नाम
मुश्किल है बता पाना दानपत्रों के बारे में
पुरस्कार में मिली ज़मीन के बारे में
ज़मीन पर खड़ी हवेलियों के बारे में
और बची हुई ज़मीन पर
चोरी से उगाई जा रही अफीम की फसल के बारे में
आखिर क्या बता सकते हैं
ज़मीन से जुड़े माटी- पुत्रों की नज़रों में
दुनियादारी से शून्य पुरातत्ववेत्ता
फिर भी इतने दुनियादार तो हैं वे
जितने कि बाक़ी सब दुनियादार
और परेशान भी उतने ही
जितने कि बाक़ी सब परेशान
कुछ बातों पर वे भी नहीं हैरान
जैसे कि बाक़ी सब नहीं हैरान
कि पेड़ से टपकते फल आसमान में नहीं जाते
नदी बहते बहते डूब जाती नदी या सागर में
और बीच में कहीं थककर रुक नहीं जाती
जीते - जीते थक हार कर मर नहीं जाते मनुष्य
या हमेशा के लिए अमर नहीं हो जाते
हैरानी यह कि ठीक - ठाक जी लेने के बाद भी
अंत में बची रहतीं इच्छाएँ
इस लोक में न सही अन्य लोक में जी लेने की
जैसे कि बचे रहते अंधविश्वास
परिवर्तन के हमले में रौंदे जाने के बावज़ूद
बुद्ध बचे रहते अपने अवतार होने के बाद भी
इसी बचे होने में निकलते जन्मभूमि से बाहर
या निकाले जाते अस्तित्व के षड़यंत्र में
बैठ जाते दुनिया के पूजाघरों में बुत बनकर
यहाँ सिर्फ़ उनकी करुणा का कमल खिलता
भौंरे सी बंद हो जाती जिसके भीतर उनकी वैज्ञानिक सोच
( बौद्ध धर्म जब भारत में अपने विकास के चरम पर था ब्राहमण शुंग द्वारा बौद्ध राजा ब्रह्द्रथ का वध कर दिया गया lतत्पश्चात षडयंत्र पूर्वक बौद्ध धर्म को यहाँ से निष्कासित कर दिया गया तथा बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित कर दिया गया lबौद्ध धर्म भारत से निकला लेकिन विश्व के जापान, चीन जैसे विश्व के अन्य देशों में फ़ैल गया। विडम्बना यह कि बुद्ध की वैज्ञानिक सोच के बरक्स उनकी करुणा को अधिक महत्त्व दिया गया।उसी तरह जैन धर्म के अनुयायी किसान और मजदूर वर्ग के लोग नहीं बन पाए इसलिए कि उनके रोजगार के काम इस तरह के होते थे जिनमे प्राणियों की हिंसा स्वाभाविक थी।)
‘जिन’ कहलाते जिन अर्थों में विजेता
नहीं जीत पाते किसानों के दिल
कि खेतों में हल के नीचे होते थे केंचुए
बहुत मुश्किल था जिन्हें अनिवार्य हिंसा से बचाना
हैरानी यह नहीं कि यही हिंसा आजकल परमधर्म है
या एक वाक्य में घटित हो रहे चार्वाक
ॠण और घी के घालमेल में डूब रहा एक उन्नत दर्शन
कि सारा बाज़ार जिसका मुरीद है इन दिनों
( प्रसिद्ध दार्शनिक चार्वाक का प्रसिद्ध वाक्य है “ ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत, यथा जीवेत सुखं जीवेत “ इस कथन के आधार पर कि वे निरे भौतिकवादी हैं और भौतिक सुखों को ही जीवन का सार मानते हैं, भाववादियों द्वारा उनकी गलत व्याख्या की गई और तत्कालीन उन्नत वैज्ञानिक दर्शन की उपेक्षा की गई।)
यह सुनाने की परम्परा में किताबों का शोर है
जिसमें जन्म लेते मनुष्य सिर और पाँवों से
शरीर विज्ञानियों को जिसमें शोध का रास्ता नहीं दिखाई देता
(लुडविग बान बीथोवेन प्रसिद्ध जर्मन संगीतज्ञ थे, उनका जन्म 1770 में जर्मनी में हुआ था, नौ सिम्फनी अथवा रागों के अलावा उन्होंने, कई संगीत रचनाओं की रचना की, नेपोलियन पर उनका काफी प्रभाव रहा।)
सत्ता के हलक़ में अटकी यह कैसी प्यास
जो अपने खून से भी नहीं बुझी
बेटे पिता की और पिता लेते रहे बेटों की जान
बिथोवेन की सिम्फनी में डूबता उतराता रहा
नेपोलियन का जीवन संगीत
ज़फ़र की गज़ल तलाशती रही कू - ए - यार
रंगों की दुश्मनी चलती रही ज़माने के रंगों से
और आदमियों की जगह फिर जंगल पनप गए
(बहादुर शाह ज़फर मुग़ल सल्तनत के आख़िरी चिराग़ थे स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान को भुला दिया गया, रंगों को भी धर्म के नाम पर बाँट दिया गया और जाति धर्म के नाम पर यह मनुष्य मनुष्यों से नफ़रत करते हुए उनकी हत्याएं करने लगा।)
ग़नीमत की अनबन के पड़ोस में प्रेम भी उपस्थित
रोमियो-जूलियट, शीरी-फरहाद, लैला-मजनूँ के शीर्षकों में
जैसे कि राजा की तलवार की बगल में सोहनी का कच्चा घड़ा
भले ही वह किस्सों में हो या किवदंतियों में
हैरानी यह कि जिस तरह पहुँचती द्वेष की कथाएँ
प्रेम की गाथाएँ उस तरह नहीं पहुँचती
हज़ार हाथियों का बल लिए घृणा उफनकर आती बाहर
प्यार दबा रह जाता कमज़ोर होकर भीतरी परतों में
समझ की बाधाएँ लांघकर पहुँच जाते विचार
बहुसंख्यक मनुष्य के अल्पसंख्यक दिमाग़ों में
वही पुत्र कहलाते ईश्वर के और दूत भी वही
बहाते खून इन दिनों
उसके लिए जो कि सबसे बड़ा ईश्वर है
हैरान होते हुए भी वे हैरान नहीं हैं
कि उन्हें पता है हैरानी अब मध्यवर्गीय विलाप है
और ग्लोबल होते हुए इस संसार में
जहाँ चाँद पर चल रही है उत्खनन की तैयारी
किसी आदिम गाँव में अब भी अमावस है
यह नूतन और पुरातन की संधिरेखा है
जिसके पार जाने पर बदल जाती है तारीख़
और दुनिया जो समय के हवाई झूले पर सवार है
उसके उत्कर्ष और पतन में
भय और आनंद की मिली-जुली क्रूर चीख है
सनसनी के साम्राज्य में हर ख़बर है चटपटी
हत्या अपहरण बलात्कार सब प्राइम टाइम पर उपलब्ध
भूख में बासमती और नींद में आरामदेह गद्दों के विज्ञापन
विकास के आकाश में सिर्फ़ फुनगियों के लिए जगह शेष
और जड़ें अपनी जगह उदास और खामोश
कवियों लेखकों चिंतकों के लिए जितना भयावह है समय
उतना नहीं शायद पुरातत्ववेताओं के लिए
कि उन्हें मालूम है यह सब एक दिन अतीत हो जाएगा
मगर उनके लिए ज़मीन तैयार करते हैं वे
जिस पर उगती है कविता की फसल
कि अब इसी तरह लौटने की ज़रूरत है इतिहास में
जैसे पेड़ लौटता है अपने बीज में
और मनुष्य भ्रूण में
अपने डी.एन.ए में लिए अपनी पहचान
और अनंत संभावनाएँ सुन्दर सुखद सुरक्षित भविष्य की
इसी ज़मीन पर जन्म लेती हैं कहानियाँ
कथानक से बाहर निकलते पात्र अपने व्यक्तित्व में
वहीं मिलती उन्हें विश्वासों की भीड़
जिसकी इच्छाओं में उन्हें साकार देखने की ज़िद
और वे तकनीक की पीठ पर सवार
दौड़ लगाते इधर-उधर मनुष्य की कल्पनाओं में
चित्र में आभास पूरी ताकत के साथ उपस्थित
और आग्रह उसकी मदद के लिए सदैव तत्पर
पुरातत्ववेत्ताओं से यह अपेक्षा
कि वे आभास में यथार्थ के रंग भरें
कि फिर घटित हो अयोध्या और द्वारका
और ट्रॉय भी कमोबेश
यह नहीं कि उन्हें दिशाओं का भान नहीं
या कि तकनीक के जादू से अछूते हैं वे
वे खुद एक पात्र हैं इंसान की कहानी के
और यह कथा अभी ख़त्म नहीं हुई है
वे खुद अनगढ़ पत्थर हैं तराशे पत्थरों के बीच
मगर उन्हें पता है सीढ़ी और गुम्बद के पत्थरों में फ़र्क
जिनकी त्वचा पर कुछ उँगलियों के निशान हैं
वे छूते हैं उन्हें महसूसते हैं कंपन
पढ़ते हैं उनमें लिखी मनुष्य की कहानियाँ
यही हैं वे उँगलियाँ जिनमें कभी तलवारों की मूठ थी
इन्हीं से चलाए गए थे तीर अपने ही भाइयों पर
इन्हीं ने किया था कभी किसी तानाशाह का राजतिलक
इन्हीं उँगलियों ने बनाए थे अंधेरी गुफाओं में उजालों के चित्र
इन्हीं में थामकर कूची अजंता की गुफाओं में रंग बिखेरे गए थे
भूख के खिलाफ़ लड़ी गई थी जंग इन्हीं में हल की मूठ पकड़ कर
इन्हीं ने झाड़ू उठाकर ज़माने भर की गंदगी साफ की थी
इन्हीं ने सहलाया था कभी किसी बच्चे के गालों को
इन्हीं में कलम पकड़कर ब्राह्मी या खरोष्ठी लिपि में
किसी लड़की ने लिखा था अपना पहला प्रेमपत्र
हर खोज और अविष्कार के निशान इन हाथों पर
उम्र लुढ़काई थी जिन्होंने पेड़ लुढ़काने में
भाषा ने जिसे पहिया कहा था
लेकिन नहीं कहा उन्हें दुनिया का पहला अविष्कारक
लकड़ी रगड़कर आग पैदा की थी जिसने
नहीं कहा उसे पहला वैज्ञानिक
कि उन दिनों अविष्कारों के पेटेण्ट का चलन नहीं था
और सार्वभौमिक होती थीं
दुनिया के मनुष्य की उपलब्धियाँ
मनुष्य ही था वह जिसने मस्तिष्क की ताकत से
दी हुई दुनिया के बरअक्स रचा था अपना संसार
मनुष्य ही है यह जो इसके आतंक से
मनुष्य पर राज कर रहा इन दिनों
जिस परकोटे में यह रहता सुरक्षित
और जहाँ से जारी होते इसके आदेश
उस कपाल को छूते हैं पुरातत्ववेत्ता
वे उसे छूते हैं जिसे छूना कभी वर्जित था
वे उसे छूते हैं जिसे छेड़ने से जनता कभी डरती थी
रात और दिन के उलटफेर में मौसम बदलता है चेहरे
एक चेहरा इतना मासूम कि डाँट खाता बच्चा
एक इतना क्रूर कि कोई तानाशाह
दिन में अमूमन गर्म रहने वाला रेगिस्तान
रात होते ही अपना चरित्र बदलता है
दबे पांव प्रवेश करती हैं कुछ दंतकथाएँ उनके खेमों में
झूठ की चुगली करना चाहती हैं कुछ घटनाएँ
एक साया निकलता मृतकों की दुनिया से बाहर
दिमाग़ की उपज में जिसका रंग काला या सफ़ेद
कई क्षेपक जिसकी कही हुई कहानियों में
और ख़ौफ़ चेहरों को पीला कर देने जितना
(पर्शिया के सम्राट कम्बाइसिस {छठी शताब्दी ई.पू.}की सेना मरुस्थल में रास्ता भटक गई थी, कहा जाता है कि जब उनके पास खाने की सामग्री समाप्त हो गई, यहाँ तक कि पीने के लिए पानी भी शेष नहीं बचा तब उन्होंने अपने ही मृत साथियों की पेशाब की थैली चीरकर अपना गला तर किया।)