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पुरानी किताबों के नये जिल्द / अर्चना कुमारी
Kavita Kosh से
यादों की गुल्लक
भरकर रीत रही
जैसे रहट हो कोई
उस पार रेत
इस पार दलदल
कहीं तो जाना होगा रास्तों को
कोई बुलाता होगा मंजिल को
हवाओं पर कान लगाए
आहटों का गीत सुनना
कितना शोर करता है समन्दर
दूर उठता है बवंडर
डूबते हैं घर शहर
मर गया है मन मेरा
फिर जिस्म में पैदा होगी
रुह नयी
लोग नये
ये किताबें एक जैसी
जिल्द होंगे बस नये...!!