पुरानी पड़ी बीन पर राग नूतन / बलबीर सिंह 'रंग'
पुरानी पड़ी बीन पर राग नूतन,
अगर कवि न गाये, तो फिर कौन गाये?
कहाँ है वह दुनिया, जहाँ कवि न पहुँचे,
सुघड़ कल्पना से गढ़ी छवि न पहुँचे;
सुना है कि ऐसे भी थल हैं अनेकों,
जहाँ और की बात क्या रवि न पहुँचे।
वहाँ जागरण की अमर-ज्योति बनकर,
अगर कवि न जाये, तो फिर कौन जाये?
पुरानी पड़ी...
गरजते रहे घन घमंडों के मारे,
दमकते घिरे दामिनी के सहारे;
प्रमाणित हुए कीर्ति की कौमुदी से,
गगन में सदा चाँद, सूरज, सितारे।
तृषाकुल धरणि तक घटाओं की आँधी,
अगर कवि न लाये तो फिर कौन लाये?
पुरानी पड़ी....
विजन जानता है बहारों की सीमा,
छिपी मौन से कब पुकारों की सीमा;
नदी-नद सरोवर में अन्तर नहीं है,
ये सब मानते हैं किनारों की सीमा।
समय-सिंधु को लाँघने आगे बढ़कर,
अगर कवि न आये तो फिर कौन आये?
पुरानी पड़ी...