भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पुरानी पीर / भावना कुँअर
Kavita Kosh से
पुरानी पीर
हर गई मन का
सारा ही धीर।
दौड़ती थी पहले
तेज़ कलम
रचती थी कितने
नूतन छंद
अब हो गई बंद।
उकेरती थी
कूँची कितने चित्र
एक से एक
लगते थे विचित्र।
अब तो बस
बिखेरती है रंग
अज़ब औ बेढंग।
</poem>