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पुराने बंधनों के सीले यादों / शर्मिष्ठा पाण्डेय
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					पुराने बंधनों के सीले यादों वाले 
अनाज मैं धूप की सूप पर फटकने बैठी हूँ  
सूखते ही नमी भरते ही 
उजास दहक उठते हैं ये धूप
-दाने लगाते ही हाथ अंगारों से 
झुलसा देते हैं मेरी हथेली 
अतीत की ठंडक उसके सीलेपन में ही थी 
हर याद हथेली का छाला बन नहीं पल सकती 
रसोई में हथेली पर पड़ने वाले छाले 
ज़िन्दगी की नमक संग मिल 
जीने का स्वाद बढ़ाते रहे  
कल्पनाओं के छाले 
नसीब की हथेली पर बनाते रहे 
घाव छालों के घाव बनने से पहले ही 
मैंने उसी अँधेरी चित-बोरी में कस 
सारी यादें नमकीन पानी में डुबो दीं 
उन्हें सीला ही रहने दो "कल" की नमी
मेरे "आज" में ठंडक भरती रहेगी 
"नमक की थी डली मैं घुल नमक के संग चली 
वे फकत ज़िन्दगी के जायकों में उलझे रहे
 
	
	

