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पुरा मुंह सिलवाया है / ओम पुरोहित ‘कागद’

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बहुत तपे हैं हम
तप कर
कुंदन तो न बने
पात बन गये;
एक जात थे,
कई जात बन गये।

हमने हाथों को
मिलाय नहीं_
उठाया है;
इसीलिए
खंजर का स्पर्श
कहीं पास ही पाया है।
लेकिन
बेगानों की--
दुश्मनी से बचे ;
अपनों ही से काम चलाया है
भले ही सरकारी हाथ,
जेबों में पड़े है ;
पड़ोस ही में
एक नया
समानांतर
देश बनाया है।

तब से अब तक
फालतू चीजों को ही बेचा है,
जुबान की तो औकात ही क्या थी,
आत्मा तक को नहीं बक्शा हमने।

कानों को--
आहट के लिए
इन्कलाब के फ़ाटक पर छोड़,
पूरा मुंह सिलवाया है हमने।