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पुरुष और नारी / अज्ञेय
Kavita Kosh से
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सूरज ने खींच लकीर लाल नभ का उर चीर दिया।
पुरुष उठा, पीछे न देख मुड़ चला गया!
यों नारी का जो रजनी है; धरती है, वधुका है, माता है,
प्यार हर बार छला गया।
नयी दिल्ली, अप्रैल, 1956