पुरुष निर्माण / गायत्रीबाला पंडा / राजेन्द्र प्रसाद मिश्र
एक नारी अपने मन का पुरुष गढ़ते समय
कभी चकित हो उठती है तो
कभी चूर-चूर हो जाती है ।
लाल, नीले, पीले रंगों के ऊन में उलझे
स्वेटर बुनने-सा
विश्वास को चाहत के साथ बुनकर
वह गढ़ती रहती है पुरुष
अपने आप में डूबी,
लगती है मुग्ध और जीवन्त ।
पैरों तले स्थिर मिट्टी
सिर पर स्थिर आकाश
मिट्टी से आकाश तक की दूरी जैसे
अमाप धैर्य से
एक नारी गढ़ती रहती है पुरुष को
बड़े जतन से, आत्मविभोर होकर ।
सागर की अनन्त जलराशि-जैसे हृदय में
उठते तरंगायित उल्लास से
एक नारी गढ़ती है पुरुष को
लहरें किनारा छूती-सी लग ज़रूर रही हैं
वह नारी ख़ुद ही हर बार टकराकर
बिखर जाती है अपने ही भीतर
अन्तर्दाह के बीच भँवर में अस्तित्व खोते वक़्त भी
बनाती चलती है मन का पुरुष
श्रद्धा और समर्पण के सुन्दर पैमाने से ।
समय वयस्क होता है
वह नारी जानती है
कभी भी आकार नहीं दिया जा सकता
वांछित पुरुष को
फिर भी वह
तमाम ज़िन्दगी जुटी रहती है निर्माण में
पर शायद कुछ पुण्य कम पड़ जाता होगा
ठीक विभोर होने लगते ही
कुछ टूटने की आवाज़ आती है
हकीकत बढ़ जाती है सपने से
बार-बार, हर बार स्वाभाविक रूप से ।
जो घास-फूस नहीं लग पाए
घरौंदा बनाने में
उन्हीं को लेकर
वह फिर से जुट जाती है निर्माण में
तड़क उठती हैं शिरा-प्रशिराएँ समाज की
समय के गली-गलियारों में बदनामी, कोलाहल
वह नारी स्मित मुस्कान में बदल जाती है केवल ।
एक नारी पुरुष को गढ़ रही है
अपनी छाती तले समय-असमय
दपदपा उठते कम्पन में
अपनी आँखों की पुतलियों में उगते रहे
सम्मोहन सूर्य में
चमड़ी के नीचे की अथाह ख़ामोशी में
या फिर विवेक के घों-घों कोलाहल में ।
एक नारी गढ़ती जा रही है पुरुष को
किसी को भनक न लगने देने-सी चुपचाप
आत्मा के अभ्यन्तर में।
मूल ओड़िया भाषा से अनुवाद : राजेन्द्र प्रसाद मिश्र