पुरुष होने की शर्म / महेश सन्तोषी
कल एक कुँवारी माँ सरेआम कानूनन, पत्थरों से कूट-कूट कर मार दी गयी,
औरत के प्रति आदमी की आदिम बर्बरता की उम्र कुछ और बढ़ गई!
औरत का पैदा होना ही एक जुर्म है, फिर साबित हो गया,
कुँवारी माँ बनना तो, दुनिया का सबसे बड़ा जुर्म हो गया।
अगर मेरे पास थोड़ी सी भी फौज होती,
तो मैं उसे लेकर इस औरत को बचाने जाता;
यदि मैं संयुक्त राष्ट्र संघ होता,
तो मैं सारे राष्ट्रो से उसे बचाने की वकालत करता;
अगर मैं एक महाशक्ति होता,
तो मैं सारी सत्ता उसे बचाने में लगा देता!
पर मैं कुछ नहीं हूँ, पुरुष होने की एक शर्म हूँ,
मैं एक जीवित पत्थर हूँ,
जो अन्य करोड़ों जीवित पत्थरों के साथ,
एक असहाय औरत को मार रहा हूँ!
जाने क्यों आदमी की बर्बरता
इतिहास में बार-बार शुरू तो होती है
पर, एक बार भी खत्म नहीं होती।
इससे तो अच्छा होता, वह औरत एक जानवर होती,
उसे पत्थरों से पीटने को,
इससे तो अच्छा होता
उसे पत्थरों से पीटने को,
जानवरों की भीड़ तो इकट्ठी नहीं होती!