पुरुष / पूनम भार्गव 'ज़ाकिर'
तुम जब सोने की
अनथक चेष्टा में होते हो पुरुष
तो तुम
इतिहास के वह पात्र होते हो
जिसके भीतर
उसकी प्रजा जाग रही होती है
तुम मुँह तक चादर ताने
जतलाते हो
कि तुम
पीड़ाहर मलहम के
तरीके ईजाद कर रहे हो
और वह
कारगर होंगें ही
निश्चय ही तुम
तकिये पर निश्चिंत
अपने सिर का बोझ रखते हो
ताकि दब जाएँ
महंगाई असुरों की
तुम्हारी तरफ आती बाहें
ये नजदीकियाँ
जी का जंजाल बनती जा रही हैं
पहले से ही
टेक्सासुर मोहिनी तुमको
आलिंगनबद्ध कर चुकी है
तुम्हारे गद्दे के नीचे से निकल रहे हैं
अरमानों के हाथ
जिन्हें तुम
हर बार की तरह दबाते हो
अपने बढ़ते वजन और
कम आय की ढीली रस्सी से
कभी कभी
छत पर तुम्हारे दोनों हाथ
पंखे की दो पंखुड़ी की शक्ल
अख्तियार करके गोल-गोल घूमते हैं
उनमें आँखे उभर आई हैं
जो तुम्हारे
रोज़ के लक्ष्य और
जिम्मेदारियों को भेदने के लिए
अंधेरों में उजाले ढूँढ रहीं हैं
एक अदद घर का ख़्वाब
एक अदद बीबी
बच्चों की भीड़ चाहते हो
खेल का मैदान
घर में ही बनाने के
तुम्हारे स्वप्न
एक बच्चे की परवरिश में
दम तोड़ देते हैं
सांस घुट रही है ना तुम्हारी
करवटों में कटती रातें
तुम्हारी
गहरी नींद की ख़्वाहिशमंद हैं
एकाधिक सुरा का प्याला बेशक़
ख़ुमारी बख़्श दे
पर संस्कारों की वल्दियत कहीं
कचोटती तो है
तभी तो
संस्कारवान पुत्र
कलपता है कल्पतरु के चरणों तले
मन ही मन
और
आशीष के हाथों को
सिर पर धर लेता है
पुरुष तुम
कितने निरीह हो जाते हो
जब रो भी नहीं सकते
तुम्हारी प्रजा
तुम्हारे वरदहस्त में
धन लदे पेड़ों की
छाया तलाशती है
और तुम मुठ्ठी भींच कर
श्री लक्ष्मी मन्त्रो के उच्चारण
दोहरा रहे होते हो
विज्ञानशास्त्र,
धर्मशास्त्र,
तन्त्रशास्त्र
अनगिनत सहस्र शास्त्र का ज्ञान
अर्थशास्त्र का मोह नहीं तज पा रहा
सो जाओ पुरुष!
जागरण की
आवश्यकता के लिए
अभिमंत्रित करो उनको जो
महत्त्वाकांक्षाओं की दौड़ में
दिन-प्रतिदिन घटते जा रहे हैं
और उनको भी
जो तुम्हें
मनुष्य से मशीन बना रहे हैं!