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पुरूषार्थ शिक्षण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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प्रकृति कविता की प्रकृतिए यदि विकृतिएँ दूषिता हो?
सरस घन की रस बरसि यदि धरा सैकत-शोषिता हो?
आत्म-रक्षा जीवनक थिक प्रथम दीक्षा, तदनु शिक्षा
हाथ भिक्षापात्र, माथ न अर्थशास्त्रक सत्समीक्षा!
ब्रह्म - सूत्रक भामती वा नाट्य - सूत्रक भारती
काम - सूत्रक वृत्ति व्यर्थे, यदि न अर्थक सारथी।।
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कोना नन्दक कुसुम - नगरी कौमुदी उत्सव निमग्ना।
जखन पश्चिम - वायवी सीमान्त रेखा छिन्न-भिन्न।
आइ तक्षशिलाक विद्या - चत्वरक एकान्त कुंजे
ककर मुक्त शिखा शिखर प्रज्वलित बाधा-तृणक पंुजे?
मगध दगधल, जकर क्रोधानलक इंधन नंद - वंशे।
चन्दगुप्तक रश्मि - रेखा यवन - कमलक कयल ध्वंसे
आइ चनका डीह पर के पाठशाला सजा रहले?
पाठ हित पुरुषार्थ शास्त्रक शस्त्र संगहिँ पिजा रहले?
धर्म-मोक्षक प्रथम - अंतिम बिन्दु मिलते मध्य रेखा
अर्थ बिनु पद प्रथम चरमहु व्यर्थ पुरुषार्थेक लेखा-
शास्त्र सूत्रेँ गथा रहले, मंत्र यन्त्रेँ जगा रहले
शस्त्र शास्त्रेँ मजा रहले, शिखा शाखा सुनत के पुनि
शिष्य - सङल बजा रहले?
तनिक अन्तेवासिनी भय चन्द्रिका प्रियदर्शिनी भय
जुटव राष्ट्रक रक्षिणी, रिपु - भक्षिणी विष - अर्पिणी भय
डँसब देशक दस्यु - गणकेँ कुटिल कृष्णा सर्पिणी भय!
कुटिल कटुपथ नीति रथ चढ़ि स्वाभिमान सदर्थ करबे
विषक विष औषध विषस, सम शमन सस, अन्वर्थ करबे
राक्षसहु रक्षक बनत, गुप्तहु प्रकट चन्द्रक कला पुनि
विष प्रयोगहु अमृत परिणत, बंधनो मुक्ताफला गुनि
चेतना चित देत, अंत दुरंत गृह - कलहुक तदन्ते
बद अनतर्द्वंद्व देशक शेष - सीमा प्रकृतिवन्ते
पुरुष - सूक्त उदात्त स्वर कय पाठ पटु बटु लेत दीक्षा
शस्त्र - रक्षित राष्ट्र पौरुष फलित करते शास्त्र शिक्षा