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पुरोवाक् (डॉ० रमाकांत शर्मा) / रणजीत

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मार्क्सवाद से अनुप्रेरित हिन्दी के प्रगतिशील-जनवादी कवियों में डॉ० रणजीत सर्वथा अलग और विशिष्ट कवि हैं। जड़ मार्क्सवादियों से डॉ. रणजीत की पटरी कभी नहीं बैठी। ‘दास केपिटल’ को ‘धर्मग्रंथ’ मानने वाले अंधविश्वासियों से डॉ. रणजीत ने एक निश्चित दूरी सदैव बनाए रखी है। वे मार्क्सवाद से रचना-दृष्टि प्राप्त करते हैं, लेकिन अपना विवेक गिरवी नहीं रखते। लोकतंत्र, व्यक्तिगत स्वाधीनता और मानवीय मूल्य के पक्षधर कवि हैं डॉ. रणजीत। इसकी फलश्रुति यह हुई कि वे साहित्य के तानाशाहों की आँखों की किरकिरी बन गए। इनके रचनाकर्म की उपेक्षा की जाने लगी। वे साहित्य की राजनीति के शिकार हुए। मार्क्सवादियों ने डॉ. रणजीत को बिरादरी बाहर का कवि माना और कलावादियों ने कभी आँख उठा कर नहीं देखा। इस प्रकार साहित्य की दुनिया में अपनी जगह तलाशने में डॉ. रणजीत को आधी शताब्दी तक संघर्ष करना पड़ा।

आज से लगभग दो दशक पूर्व जब राजस्थान साहित्य अकादमी की ओर से डॉ. रणजीत के कविताकर्म पर ‘मोनोग्राफ’ लिखने का प्रस्ताव मुझे मिला तब मैंने उक्त प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकारते हुए डॉ. रणजीत की समस्त काव्य-कृतियों का गहराई से अध्ययन किया। उनकी कृतियों से गुज़रते हुए मैंने यह अनुभव किया कि डॉ. रणजीत मनुष्य-विमर्श के कवि हैं - जिसके स्वाभाविक हिस्से हैं - दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श। जबकि इन दोनों विमर्शो के नारे बरसों बाद वजूद में आए।

डॉ. रणजीत के कविता-कर्म की ख़ूबी यह है कि वह विचाराधारात्मक आतंक से सर्वथा मुक्त है। इनकी कविताएँ मनुष्य धर्म की पक्षधर कविताएँ हैं। मानवीय संवेदना और मानवीय जीवनमूल्य इनकी कविताओं में द्रव और खनिज की तरह मौजूद हैं। विचारबोध, भावबोध और कलाबोध का त्रिवेणी-संगम इनकी कविताओं में देखते ही बनता है। डॉ. रणजीत की आधुनिकता आधुनिकतावादियों की आधुनिकता नहीं है। व्यापक विश्वविज़न के बावजूद उसकी भारतीयता की धज बराबर बनी रहती है।
क्रोध और विद्रोह के साथ प्रेम और करुणा की विविध भावदशाएँ डॉ० रणाजीत की कविताओं में इन्द्रियबोधात्मक बिम्बों में व्यक्त हुई हैं। एक बेहतर दुनिया का ख्वाब इस कवि की आँखों में सदैव ज़िन्दा रहता है। वे दुनिया को जीने और रहने लायक बनाने के लिए आदमी को इन्सान रूप में देखना चाहते हैं। यही प्रयोजनधर्म इनकी कविताएँ बखूबी निभाती हैं।
डॉ० रणजीत क्योंकि कलावादी कवि नहीं हैं, इसलिए इनकी कविताओं में कलाबाज़ी और पच्चीकारी नहीं मिलेगी। वे अंधउत्साही प्रगतिवादी भी नहीं है, इसलिए इनकी कविताओं में बयानबाज़ी और नारेबाज़ी भी नहीं मिलेगी। इनकी कविताओं के केन्द्र में मनुष्य है। इसलिए इनकी कविताओं में मनुष्य के सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, आशा-उल्लास, संघर्ष-प्रतिरोध, जय-पराजय के अनेक भाव प्रसंग मिलेंगे - जो अत्यन्त विश्वसनीय होने के साथ-साथ मर्मभेदी भी हैं।

डॉ. रणजीत के अब तक अनेक कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 1964 में प्रकाशित ‘ये सपने: ये प्रेत’ से लगाकर 2008 में प्रकाशित ‘जूझती संकल्पनाएँ’ के बीच ‘जमती बर्फ़: खौलता ख़ून’, ‘इतिहास का दर्द’, ‘इतना पवित्र शब्द’, ‘झुलसा हुआ रक्तकमल’, ‘पृथ्वी के लिए’, ‘अभिशप्त आग’ और ‘ख़तरे के कगार तक’ जैसे कविता-संग्रह प्रकाशित हुए। मुझे अत्यन्त
प्रसन्नता है कि अब डॉ. रणजीत की प्रतिनिधि कविताओं का संग्रह ‘प्रतिनिधि कविताएँ: रणजीत’ नाम से प्रकाशित हो रहा है। मुझे उम्मीद है, हिन्दी के पाठक-जगत में इस कृति का समुचित स्वागत होगा।
                                                                  डॉ० रमाकान्त शर्मा