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पुरोवाक / अकेले की नाव अकेले की ओर

Kavita Kosh से
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कृष्ण के बाद ओशो धरती पर पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने जीवन को उत्सव के रूप में माना। कहा- जीवन जी भर जी लेने जैसा है, उत्सव मनाने जैसा है। लेकिन‘यह युग बुद्धि का है, और बुद्धि घाव हो गई है’ (गीता दर्शन-18, भूमिका)। वह एक जाग्रत पुरुष हैं। उनके रहते मैं उनके सान्निध्य का लाभ नहीं उठा सका। किंतु उनकी देशना व करुणा ने मुझे अत्यंत अभिभूत किया। उनके प्रति मेरा मन भावों के अतिरेक से भर उठा। मन में उठे इन भावों को उनके जीवनकाल में ही मैंने कुछ काव्य-पंक्तियों में ढालना शुरू किया। ऐसा कर उनसे अनुभूति-संपर्क बनाने की मेरी कोशिश थी। कुछ अभिव्यकितयाँ उन्हें भेजी भी थीं पर उन दिनों वह मौन में थे। मुझे उनकी सचिव शीला के प्रत्युत्तर से ही संतोष करना पड़ा। उनकी दृटि में हर नई-पुरानी अभिव्यक्तियों में अंतर्हित संवेदनाओं का स्वागत था। इच्छा थी इन्हें एक अलक्ष्य धागे में पिरोकर एक संगुंफन तैयार करूँ और उन्हें भेंट करूँ। किंतु मेरी यह लालसा पूरी नहीं हो सकी।यह अभी अधूरा ही था कि वह देहांतरित हो गए। उनके देहांतरण के बाद इस संगुंफन को धरती से संपर्क के लिए उनकी माध्यम मा आनंदो को मैंने प्रेमार्पित किया है। मेरी काव्याभिव्यक्त भावतरंगें उन्हें स्पर्शित कर सकेंगी अथवा नहीं मैं नहीं कह सकता।ये भाव मेरे हृदय से उमड़कर मेरे मन में स्वतंत्ररूप से उठे हैं। यह संगुंफन अब विद्वद्जनों के सुपुर्द है, इसमें उनके प्रवेश और उनकी आलोचना के लिए।

अंतर्भावक

मैंने इस संगुंफन की एक हस्तलिखित प्रति मा आनंदो को दिनांक 21।11।1999 ई। को भेज दी थी। मा आनंद साधना ने प्रत्युत्तर दिया कि वह हिंदी नहीं जानतीं अतः उत्तर नहीं दे सकीं। इसकी कुछ प्रतियाँ मैंने डॉ हरिवंश राय बच्चन, डॉ परमानंद श्रीवास्तव, डॉ के।सी। लाल और डॉ नामवर सिंह को भेजी थीं। इसकी दो-एक भावाभिव्यक्तियॉ आचार्य जानकीबल्लभ शास्त्री को भी भेजी थीं। इनमें से केवल शास्त्री जी का उत्तर आया। उन्हें ये अच्छी लगीं थीं।