भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पुर‍इन मगन हो जाती है / रंजना जायसवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब भी
जीती हूँ तुममें
तुम
आ जाते हो
मुझमें
और हर लेते हो
मेरे अन्दर का
सूनापन

बाहर
पसर जाती है
एक चुप्पी
और भीतर मच जाती है
हलचल

रातें
सजल हो जाती हैं
दिन तरल

पोखर भर जाता है
पुरइन मगन हो जाती है...।