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पुलिया / मिथिलेश श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
एक समय था जब हम एक पुलिया पर बैठे
बेहिसाब समय बेकार किया करते
हमें रहती बराबर एक फ़िक्र
अपनी कमीज़ को बचाने की काले दाग़ से
देखते ही जिसे कोसने लगतीं माएँ अपनी कोख
हँसती हुई लड़कियाँ गुज़र जातीं
सामने से बेपरवाह
चिढ़ते हम बेवजह पैसा कमाने की कला से
दलाली में पैसा था हम जानते थे
हम जानते थे सारे लोग दलाली नहीं कर सकते
हम रचना चाहते थे
नदी आकाश धरती पेड़
असफल आदमी हमें अच्छा लगता
हम याद करते कई परिवार एक उम्र के
जिनमें कई बच्चे थे
एक आँगन कई दौड़ते पैरों को सम्भाल सकता था
एक पेड़ पर चढ़ने के लिए बेताब बच्चे
चढ़ते चले जाते थे फुनगियों के पार बिना गिरे
एक पुलिया थी जहाँ से चिल्लाते थे
हम भूख
वह आवाज़ कई घरों में सुनी जाती ।