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पुल की तरह खुला है दिन / वंशी माहेश्वरी
Kavita Kosh से
सुबह से तनकर
बिछा है पूरा दिन
पिछली रात के अनंत स्पर्श लिए |
धरती से कुछ ऊपर
आकाश से कुछ नीचे
पुल की तरह खुला है दिन |
तमाम अनुभूतियाँ / स्मृतियाँ
जुड़ेंगी
इसके अंतिम छोर
रात की किरकिराती आँखों में
पूरा दिन फिर आएगा
हमेशा
व्यतीत की तरह |
फिर उद्भव
फिर अंत
मनुष्यों की यादगार की अंतहीन
पुनर्जीवित गाथाएँ
पुल से गुज़रेंगी
कुछ पुल के ऊपर
कुछ पुल के नीचे |