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पुल की बात करते हुए / रश्मि भारद्वाज

पुल की बात करते ही बचपन का एक पुल याद आता है
जो नानी घर जाने के रास्ते में आया करता था
इतना संकरा और इतना कमजोर कि एक रिक्शा भी गुजरता तो हिल पड़ता था
उसपर से गुजरते मैं हमेशा भय से आँखें बंद कर लेती थी
मेरी याद में तो वह गिरा नहीं
लेकिन कभी तो ज़रूर भरभरा कर टूट पड़ा होगा
और साथ ले गया होगा किसी साइकिल से घर लौटते पिता
या हाथ रिक्शे पर सवार स्कूल से लौट रहे बच्चों को
फिर पुल की बात करूँ तो देखे- सुने कई पुल याद आते हैं
झुलनिया पुल, हिलता हुआ पुल
और किसी किसी के बारे में तो लोग खुलेआम कहा कहते थे कि यह अब कभी भी गिरा ही समझो
जबकि किसी भी पुल पर पैर रखते हम भरे होते हैं अदम्य विश्वास या बेपरवाही से
या कि एक लाचारगी से
पार उतरने के लिए गुजरना ही होता है हर बार किसी न किसी पुल से
पुलों को हमेशा टूट कर गिर जाने के लिए छोड़ दिया जाता है
बिना यह ध्यान रखे कि हर टूटता पुल एक भरोसे की मौत भी है

पुलों को छोड़ दिया जाता है ध्वस्त हो जाने के लिए
ताकि आम आदमी को यह याद रहे
कि इतना भी सहज नहीं गुजर जाना उसके लिए साबूत
इस झूलते हुए तंत्र के बीच से