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पूँजी के उत्तर / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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खिसिया जाते बात बात पर
दिखलाते ख़ंजर
पूँजी के उत्तर

अभिनेता ही नायक है अब
और वही खलनायक
जनता के सारे सेवक हैं
पूँजी के अभिभावक

चमकीले पर्दे पर लगता
नाला भी सागर

सबसे ज़्यादा पैसा जिसमें
वही खेल है मज़हब
बिक जाये जो
कालजयी है
उसका लेखक है रब

बिछड़ गये सूखी रोटी से
प्याज और अरहर

जीना है तो ताला मारो
कलम और जिह्वा पर
गली-मुहल्ले श्वान सूँघते
सब काग़ज़ सब अक्षर

पौध प्रेम की सूख गई है
नफ़रत से डरकर