पूंजी (अपनी-अपनी) / अजित कुमार

रुपहली आभा और
सुनहली किरनों से
अपना घर भरनेवाले
हे कवि ।
तुम न केवल
पूँजीवादी सभ्यता की उपज,
वरन
बेहद लालची भी थे ।

हमें देखो ।
हमने बटोरे हैं
सिर्फ़
स्याह, सख़्त
खुरदुरे पत्थर…
और वे भी—
दूसरों के लिए ।

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