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पूछते है लोग मुझसे गीत यह अवसाद के क्यों? / गौरव शुक्ल

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पूछते है लोग मुझसे गीत यह अवसाद के क्यों?

खो गया है क्या कि जिसको भूल तुम सकते नहीं हो?
कौन है वह याद करने से जिसे थकते नहीं हो?
भार यह भारी उठाकर दूर कितनी जा सकोगे?
इस निराशा, वेदना में डूबकर क्या पा सकोगे?

गत बिसारो और आगत का करो स्वागत विहँसकर,
पात्र बनते जा रहे हो लोक में अपवाद के क्यों?
पूछते है लोग मुझसे गीत यह अवसाद के क्यों?

बह चुका इतने दिनों में जाह्नवी से नीर कितना,
चल चुकी तब से धरा भी वक्ष नभ का चीर कितना;
मेघ कितने, बार कितनी, आ बरस कर जा चुके हैं,
फूल कितने, बार कितनी, खिल चुके, मुरझा चुके हैं।

इस विवर्तित विश्व में जब कुछ न ठहरा, तुम ठहर कर
लिख रहे हो छंद पीड़ा, व्यग्रता, उन्माद के क्यों?
पूछते है लोग मुझसे गीत यह अवसाद के क्यों?

क्या कहूँ इस प्रश्न का उत्तर कहाँ से ढूँढ लाऊँ,
और उन आत्मीय जन को भेद क्या इसका बताऊँ;
क्या घटा है साथ मेरे, जो न घटना चाहिए था,
फट गया है चित्र वह जिसको न फटना चाहिए था।

मैं निरुत्तर हूँ, क्षमा करना मुझे आत्मीय मेरे;
क्या कहूँ है यह विषय लायक नहीं संवाद के क्यों?
पूछते है लोग मुझसे गीत यह अवसाद के क्यों?