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पूछते हो तुम के हम पर आस्माँ कैसा रहा / तलअत इरफ़ानी

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पूछते हो तुम के हम पर आस्माँ कैसा रहा,
प्यास पर गोया कि पानी का निशाँ कैसा रहा

एक चौखट चार ईंटों पर खड़ी हिलती रही,
सर झुकाने को हमारा आस्ताँ कैसा रहा

अपनी अपनी ज़िंदगी थी और अपनी अपनी मौत,
अब के अपने शहर में अमनों अमाँ कैसा रहा

मुद्दतों से हूँ ज़माने से किनारा कश मगर,
तुम जो मिल जाओ तो पूछूं सब कहाँ कैसा रहा

रात अपने चोर दरवाज़े पे जब दस्तक हुई,
इक हयूला सा हमारे दरम्याँ कैसा रहा

हासिले सहरा-नवर्दी और कुछ होता तो क्यूं?
और इक मंज़र पसे मन्ज़र निहाँ कैसा रहा

हर नफस यूँ तो अज़ल से था अबद का इख्तिलात,
इक शिकस्ता पल बिखर कर दरमियाँ कैसा रहा

ज़ह्न से पैदा हैं तलअत नित नए सूरज ख़याल,
धूप कैसी भी थी लेकिन सायेबाँ कैसा रहा