भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पूछना है क्या किसी से / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
पूछना है क्या किसी से,
मिल के आया हूँ सदी से।
अधर सूखे, कंठ सूखे
रक्त भींगे मन-बदन थे,
चीथड़े सब वस्त्रा मैले
आँसुओं से तर नयन थे;
स्वर में केवल कँपकपी थी
झूलती थीं पसलियाँ सब,
टूट उस पर ज्यों गिरी हों
कड़कड़ा कर बिजलियाँ सब;
सोचता हूँ, क्यों हुआ यह
आदमी की किस कमी से!
धन-पिपासा, यश-पिपासा
युद्ध का रथ-नाद घर्घर,
बल-पिपासा, छल-पिपासा
सृष्टि का सुख विकल थर थर;
भाग्य को बन्दी बनाए
कौन यह पागल हुआ है,
जो नहीं यह मानता है
देवता से छल हुआ है ।
है अभी भी दूर सचमुच
आदमीयत आदमी से ।