भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पूछो नहीं हमसे खामोशियों का अर्थ / हरीश भादानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पूछो नहीं हमसे खामोशियों का अर्थ !
बारूद गीली है
अभी आवाज़ की
फिर भी
बिछाए जा रहे हैं-
तलहटी से कंगूसों तक
कैसी बनेगी सूख जाने पर-
पूछो नहीं हमसे
साँसों से
हवाते जा रहे हैं धूप को
कि यह हमारी
अँगुलियाँ उठी दिशा ले ले
क्या बनेगा रंग
रगड़ खाने पर
पूछो नहीं हमसे
झुर-मुटों से
उलझते तन के बहुत गहरे में
छिपा रक्खा हैं
एक दुख, बहुत कुछ-एक धुन,
किसी साफ आकाश के नीचे
धरती के खुले आँगन रख लेने से
क्या बनेगा रूप
यह पूछो नहीं हमसे !