भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पूछो मत क्या हाल-चाल हैं / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पूछो मत क्या हाल-चाल हैं
पंछी एक हज़ार जाल हैं
 
पथरीली बंजर ज़मीन है
बेधारे सारे कुदाल हैं
 
ऊँघे हैं गणितज्ञ नींद में
अनसुलझे सारे सवाल हैं
 
जिसकी हाँ में हाँ न मिलाओ
उसके ही अब नेत्र लाल हैं
 
होगी प्रगति पुस्तकालय की
मूषक जी अब ग्रंथपाल हैं
 
मंज़िल तक वो क्या पहुँचेंगे
जो दो पग चल कर निढाल हैं
 
जस की तस है जंग 'अकेला'
हाथों-हाथों रेतमाल हैं