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पूरब-पश्चिम दोनों दिशि से उमड़ रही है आग / गुलाब खंडेलवाल

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1965 के पाकिस्तानी आक्रमण पर

पूरब-पश्चिम दोनों दिशि से उमड़ रही है आग
घर में अर्गल लगा शान्ति से सोनेवाले! जाग
. . .
सिर देकर ही स्वतंत्रता का मूल्य चुकाना पड़ता
तलवारों पर चढ़कर ही इस घर में आना पड़ता
पल-भर सोये जहाँ वहीं इतिहास पुराना पड़ता
एक चूक के लिए पीढ़ियों तक पछताना पड़ता
लाख आँसुओं से न धुलेगा फिर धरती का दाग़
. . .
निज बल का आधार न जिनको, पर के बल जीते हैं
अपमानित भी विवश, खून का घूँट वही पीते हैं
भय के बिना न प्रीति, शक्ति के बिना न्याय रीते हैं
मानव की वन्यावस्था के दिन न अभी बीते हैं
क्षीण-कंठ तू गा न सकेगा कभी शान्ति का राग

पूरब-पश्चिम दोनों दिशि से उमड़ रही है आग
घर में अर्गल लगा शान्ति से सोनेवाले जाग