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पूरा घर बिखर गया है शान्तनु ! / ध्रुव शुक्ल
Kavita Kosh से
तुम्हें बीननी थीं हमारी अस्थियाँ
अब हम ही चुन रहे हैं तुम्हारी
पूरा घर बिखर गया है शान्तनु !
छोटी-सी पोटली में
अपने सपनों की राख लिए पिता
बैठे हैं चुपचाप तुम्हें गोद में उठाये
बिलखते हैं हम रह-रहकर
निहत्थे हो जाते हैं
डाल से टूटे पत्ते की तरह