पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में ख़ुश हैं / नज़ीर अकबराबादी
जो फ़क्ऱ<ref>साधुता</ref> में पूरे हैं वह हर हाल में खुश हैं।
हर काम में हर दाम में, हर हाल में खुश हैं॥
गर माल दिया यार ने, तो माल में खुश हैं।
बे ज़र जो किया, तो उसी अहवाल में खुश हैं।
इफ़्लास<ref>गरीबी, मुफलिसी</ref> में इदबार<ref>गरीबी</ref> में, इक़्बाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥1॥
चेहरे पे मलामत<ref>भर्त्सना, निन्दा</ref>, न जिगर में असरे ग़म।
माथे पे कहीं चैन, न अबरू<ref>भोंह</ref> में कहीं ख़म॥
शिकवा न जुबां, पर, न कभी चश्म हुई नम।
ग़म में भी वही ऐश, अलम में भी वही दम॥
हर बात हर औक़ात, हर अफ़आल<ref>कार्य</ref> में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥2॥
गर यार की मर्ज़ी हुई सर जोड़ के बैठे।
घर बार छुड़ाया तो बहीं छोड़ के बैठे॥
मोड़ा उन्हें जिधर वहां मुंह मोड़ के बैठे।
गुदड़ी जो सिलाई तेा वही ओढ़ के बैठे॥
गर शाल उढ़ाई तो उसी शाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥3॥
गर उसने दिया ग़म तो उसी ग़म में रहे खुश।
और उसने जो मातम दिया, मातम में रहे खुश॥
खाने को मिला कम, तो उसी कम में रहे खुश।
जिस तौर कहा उसने उस आलम में रहे खुश॥
दुख दर्द में आफ़ात में जंजाल में खुश है।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥4॥
जीने का न अन्दोह न मरने का ज़रा ग़म।
यकसां है उन्हें ज़िन्दगी और मौत का आलम॥
वाक़िफ़ न बरस से, न महीने से वह एक दम।
ने शब की मुसीबत, न कभी रोज का मातम॥
दिन रात घड़ी, पहर में औ साल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥5॥
गर उसने उढ़ाया तो लिया ओढ़ दुशाला।
कम्बल जो दिया, तो वही कांधे पे संभाला॥
चादर जो उढ़ाई, तो वही हो गई बाला।
बंधवाई लंगोटी तो वहीं हंस के कहा ‘ला’॥
पोशाक में दस्तार में, रूमाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥6॥
गर खाट बिछाने को मिली खाट में सोये।
दूकां में सुलाया, तो वह जा हाट में सोये॥
रस्ते में कहा, सो, तो वह जा बाट में सोये।
ग़र टाट बिछाने को दिया, टाट में सोये॥
और खाल बिछा दी, तो उसी खाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥7॥
प्याले को दिया हाथ, तो हो निकले भिखारी।
बिठला के खिलाया, तो वहीं उम्र गुज़ारी॥
मियाने<ref>एक प्रकार की पालकी</ref> पे चढ़ाया, तो लगे करने सवारी।
और पांव चलाया, तो वही बात संवारी॥
जिस चाल में रक्खा, वह उसी चाल में खुश हैं॥
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥8॥
ग़र मोंठ मंगा दी तो वही चाब ली खुश हो।
और ज्वार भुना दी, तो वही चाब ली खुश हो॥
सूखी जो दिला दी, तो वही चाब ली खुश हो।
रूखी जो उठा दी, तो वही चाब ली खुश हो॥
और दाल खिलाई, तो उसी दाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥9॥
पानी जो मिला पी लिया, जिस तौर का पाया।
रोटी जो मिली तो किया रोटी में गुजारा॥
दी भूख अगर यार ने, तो भूख को मारा।
दिलशाद रहे, करके कड़ाके पे कड़ाका॥
और छाल चबाई, तो उसी छाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥10॥
गर उसने कहा सैर करो जाके जहां की।
तो फिरने लगे जंगलो बरमार के झांकी॥
कुछ दश्तो<ref>जंगल</ref> वियावां<ref>मरुस्थल</ref> से ख़बर तन की न जां की।
और फिर जो कहा, सैर करो, हुस्ने<ref>माशूका की सुन्दरता</ref> बुतां की॥
तो चश्मो<ref>आंख</ref> रूख़ो<ref>गाल, कपोल</ref>, जुल्फ़ो, ख़तो ख़ाल<ref>तिल-बिन्दु</ref> में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥11॥
कश्के़<ref>तिलक</ref> का हुआ हुक्म, तो क़श्क़ा वहीं ख़ींचा।
जुब्वे<ref>अंगरखा, चोगा</ref> की रज़ा देखी, जो जुब्बा वहीं पहना॥
आज़ाद कहा हो तो वही सर को मुड़ाया।
जो रंग कहा, उसने वही रंग रंगाया॥
क्या ज़र्द में, क्या सब्ज़ में, क्या लाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥12॥
चादर जो उढ़ाई तो जती हो गये यकबार।
बाहर को चले, फ़क्र की झोली को बग़ल मार॥
मुंह बांध के निकलो, तो वहीं हो गए तैयार।
सर घोंट मुंडाओं, तो किया फिर वही बिस्तार॥
सब पंथ में सब चाल में, सब ढाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥13॥
कुछ उनको तलब घर की न बाहर से उन्हें काम।
तकिये की न ख़्वाहिश है न बिस्तर से उन्हें काम॥
इस्थल की हवस दिल में, न मन्दिर से उन्हें काम।
मुफ़्लिस से न मतलब, न तवांगर से उन्हें काम॥
मैदान में बाजार में, चौपाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥14॥
उनके तो जहां में अजब आलम हैं, ‘नज़ीर’ आह!
अब ऐसे तो दुनिया में, वली कम हैं, ‘नज़ीर’ आह॥
क्या जाने फ़रिश्ते हैं, कि आदम है ‘नज़ीर’ आह!
हर वक़्त में हर आन में, खुर्रम हैं ‘नजीर’ आह॥
जिस ढाल में रखा, वह उसी ढाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥15॥