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पूर्णता / सुधा ओम ढींगरा

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धरती पर
छठा बिखेरने जब
चाँदनी उतरने लगी..
चाँद ने उदास हो पूछा--
मुझ आधे-अधूरे में तुम
समाई रहती हो,
मेरे पूर्ण होते ही
छोड़ जाती हो.

पूर्णिमा की रात
कहर ढाती है मुझ पर,
लोग पूजा- अर्चना कर
स्वीकारते हैं मेरी पूर्णता,
तब तुम
मेरे पहलू में नहीं होती,
धरती को अपनी छवि से
सराबोर करने चली जाती हो.

प्रिय,
अधूरे को ही तो
पूरा किया जाता है..
पूर्णता तो स्वयं
स्थान रहित होती है...
पृथ्वी पर मैं
टूटे दिल,
विरह के मारे प्रेमी,
व्यथित हृदयों की
कल्पनाओं में
विचरने वालों
के अधूरे सपने ही तो
पूरे करने जाती हूँ.

पर अब तो
मानव भी बदल गया,
न छत्त है, न आंगन,
बड़ी -बड़ी अट्टालिकायें,
न जा सकूँ, न फैल सकूँ
फिर विरह के मारे कहाँ..
इधर दिल टूटा,
उधर जुड़ जाता है.
आहें भरने,
मुझ से ठंडक पाने का समय कहाँ...
कल्पनाओं में मुझे बुनने वाले
अब कवि भी कहाँ..
बौद्धिक कौशल में उलझे उनके
हृदयों में अब मैं कहाँ...

प्रिय,
धरती वासी
तुम पर बसना चाहते हैं.
जिस दिन तुम्हें कष्ट में पाऊंगी,
रक्षा कवच बन जाऊंगी,
साथ निभाने आऊंगी,
अभी मुझे धर्म निभाने दो,
कुछ बेचैन रूहों,
अतृप्त आत्मायों को सुख देने दो...