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पूर्णमासी रात भर / शकुन्त माथुर
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पूर्णमासी रात - भर
पीती रही सुधा
अँक में शशि के सिमटकर
धोती रही श्यामल बदन
सुध - बुध बिसार
दिन सरीखी श्वेत चादर ढाँक
उस सुनहली सेज पर
तारकों का जाल था जिस पर बना
पूर्णिमा की सुख भरी थी रात।
कब चितेरा कौन - सा रँग दे सकेगा
एक ही स्याही की गहरी छाप से
और जल के क्षीण छीटों से
मिटाकर
चित्र क्या बाक़ी रहेगा?
देस को अपने बिदेसी जाएगा
चन्द्र का प्रस्थान होगा दूर पर
हाँ, तकेगी राह
चन्दन के वनों में चान्दनी
फिर - फिर सिकुड़ती
आँख से आँसू गिराती
सलवट पड़े गुलाब पर।