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पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते / शार्दुला नोगजा

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हर एक पग जो मैं चला था
वह तेरे पथ ही गया था ,
ज्ञात ना गन्तव्य था पर
लक्ष्य आ खुद सध गया था ।
 
तू ही है मनमीत मेरा
तू ही मेरा प्राणधन,
कस्तूरी मृग सा मैं भटकता
तू है गंधवाही पवन ।
 
तू रहे किस काल में
किस देस में, किस भेस में ,
इसकी नहीं परवाह करता
तुझ से विलग ना शेष मैं !
 
विश्रांति में तुझ को पुकारे
बाट संजोये सदा
वो खोज मैं, मैं वो प्रतीक्षा
मैं वो चातक की व्यथा ।
 
द्वंद जितने भी लड़ा था
और जो लिखा-गढ़ा था,
वो तेरे ही द्वार की
एक-एक कर सीढ़ी चढ़ा था ।
 
आज जब मैं पास हूँ
क्यों मुझ से तू मुख फेरता,
मैं ना हरकारा कोई
जो जाये घर-घर टेरता ।
 
मैं तेरे संग बोल लूँ
तुझको तुझी से तोल लूँ
मैं तेरा ही अंश प्रियतम
क्या पूर्ण का मैं मोल दूँ ?