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पूस का एक दिन / मलखान सिंह
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सामने अलाव पर
मेरे लोग देह सेक रहे हैं।
पास ही घुटनों तक कोट
हाथ में छड़ी,
मुँह में चुरट लगाए खड़ीं
मूँछें बतिया रही हैं।
मूँछें गुर्रा रही हैं
मूँछें मुस्किया रही हैं
मूँछें मार रही हैं डींग
हमारी टूटी हुई किवाड़ों से
लुच्चई कर रही हैं।
शीत ढह रहा है
मेरी कनपटियाँ
आग–सी तप रही हैं।