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पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
Kavita Kosh से
फिर लिखूँगा एक प्रेम-कविता
फेंकूँगा तुम्हारी ओर, पृथ्वी!
तुम लपकना या छोड़ देना
आकाशगंगा में मेरी कविता
प्रेम तो फिर भी
बह लेगा सितारों, नक्षत्रों के बीच
आलोकित करेगा ग्रहों को
प्रज्वलित करेगा अग्नि सूर्य में
संभव होगा जिससे जीवन धरा पर
प्रेम से भरा जीवन
खुद को रचने के लिए
खुद में रचने-बसने के लिए।
फिर लिखूँगा एक प्रेम-कविता
बहा दूँगा उसे नदी में
सागर में मिल जाने के लिए
फिर से वर्षा की बूँदे बन
धरा पर बरस जाने के लिए
संभव होगा फिर जीवन
हरियायेगी धरा
बूँदों को अपने में समाने के लिए।
फिर लिखूँगा एक प्रेम-कविता
और इस तरह
लिखता ही रहूँगा
कविता, इस ब्रह्मांड में
इसको बनाने के लिए
लौटकर
बार-बार लौटकर आने के लिए।