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पृथ्वी का चक्कर / राजेश जोशी
Kavita Kosh से
यह पृथ्वी सुबह के उजाले पर टिकी है
और रात के अंधेरे पर
यह चिड़ियो के चहचहाने की नोक पर टिकी है
और तारों की झिलमिल लोरी पर
तितलियाँ इसे छूकर घुमाती रहती हैं
एक चाक की तरह
बचपन से सुनता आया हूँ
उन किस्साबाजों की कहानियों को जो कहते थे
कि पृथ्वी एक कछुए की पीठ पर रखी है
कि बैलों के सींगों पर या शेषनाग के थूथन पर,
रखी है यह पृथ्वी
ऐसी तमाम कहानियाँ और गीत मुझे पसन्द हैं
जो पृथ्वी को प्यार करने से पैदा हुए हैं!
मैं एक आवारा की तरह घूमता रहा
लगातार चक्कर खाती इस पृथ्वी के
पहाड़ों, जंगलों और मैदानों में
मेरे भीतर और बाहर गुज़रता रहा
पृथ्वी का घूमना
मेरे चेहरे पर उकेरते हुए
उम्र की एक एक लकीर