पृथ्वी के खोने से पहले / भरत प्रसाद
लाचार, अवाक् सा, साँसें रोके
सुदूर अतीत को झाँकता रहता हूँ अपलक
एक से बढ़कर एक पृथ्वी के अनमोल दिन,
अरे, खोते जा रहे हैं मुझसे ।
आँखें उठाकर देखिए,
इतिहास करवट बदलता है — एक दिन
छोट-छोटे दिन मिलकर ही
बड़ी-बड़ी सभ्यताओं को जन्म देते हैं
किसी दिन ही घटित होती हैं अमर घटनाएँ
भूलिए मत,
बुद्ध में बुद्धत्व छह साल में नहीं
सिर्फ छह दिन के भीतर प्रकट हुआ था
वर्षों से बुझे हुए मस्तक में
किस दिन चमकता हुआ विस्फोट भर जाय
कुछ कह नहीं सकते ।
नाउम्मीदी के घुप्प अंधकार में भी
एक न एक दिन
उम्मीद की सुबह खिलती है,
हज़ार बार पराजय में टूटे हुए क़दम भी
एक दिन, जीत का स्वाद चख़ते हैं
घृणा की चौतरफ़ा मार से किसी का मरा हुआ सिर
अचानक किस दिन
बेइंतहा सम्मान पाकर जी उठे
कौन बता सकता है?
पिछला कोई भी दिन, नहीं है आज का दिन
वह कल भी नहीं आएगा,
आज का दिन, सिर्फ़ आज के दिन है—
अनगिनत शताब्दियों के लिए ।
15 अगस्त की जगह, रख दीजिए 14 अगस्त
अर्थ का अनर्थ हो जाएगा,
नहीं हो सकता 5 दिसम्बर, 6 दिसम्बर की जगह
सिर्फ़ एक दिन का फ़ासला
मनुष्य का चेहरा बदल देता है,
पलट देता है इतिहास को देखने का नजरिया
हमारे जीवन में हज़ारों दिन आए
और हज़ारों दिन गए
मगर धिक्कार ! कि हम जीने की तरह
एक दिन भी नहीं जीए ।
पृथ्वी को खोने से पहले
जी भर कर जी लेना चाहता हूँ
एक-एक दिन का महत्व,
सुन लेना चाहता हूँ
जड़-चेतन में अनंत काल से धड़कती
पृथ्वी का हृदय
पी लेना चाहता हूँ
सृष्टि के सारे अलक्षित मर्म
पा लेना चाहता हूँ
हर के वृक्ष के प्रति माटी की ममता का रहस्य
इसके बग़ैर जीना तो क्या
इसके बग़ैर मरना तो क्या ।
(जुलाई-2011)