पृथ्वी को हमने जड़ें दीं (कविता) / नीलोत्पल
(एम.एफ. हुसैन के लिए)
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चांद की अस्थियां बिखरी पड़ी हैं
ज़मीन पर
सभी आसमान की ओर देखते हैं
वहां चांदनी नहीं,
पत्तियां नहीं,
कई बुंदे सुखी पड़ीं
(टपकता रहा रोशन लिबास में अंधेरा)
बहुत देर तक सभी गुमसुम 
और चुप खड़े रहे
समुद्र ख़ाली होते रहे
न चिड़ियाएं वहां लौटती
न बारिश
समुद्र एकांत में जख़्म सिलता रहा 
सभी ने गठरी में 
नमक, मिर्च और नींबू रखे
सभी चल दिए भीड़ में
जो उन्हें भूलाने वाली थी
कि कंडे, राख और धुंए में
कोई रंग उनका सगा नहीं
 
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सातों रंगों ने
आकाश, पृथ्वी, समुद्र, पेड़
और फूलों का अनुभव कराया
स्मृतियां सारी रंगों भरी थीं
प्रेम के विपरीत जितनी कैंचियां थी
रंगों ने उन्हें चींटियां बना दिया 
और वे दूर निकल गई
एक दिन किसी पेड़ के नीचे
उन्हें मृत पाया गया
आख़िरकार नफ़रत करना भी  ढंग था
उन्होंने नफ़रत की कं चियों सें, 
उन नंगे पैरों से जो मिट्टी के भीतर धंसे थे
अपनी जडं़ फैलाने के लिए,
हाथों की उंगलियों से 
जिन्होंने रोटी और कोरे काग़ज़ को 
पत्तियों, फूलों, समुद्रों से रंग दिया 
एक दिन रंगों ने 
उघाड़ दिया नफ़रतों का लिबास
उनके हाथों से गिर गए सूटकेस
वे जल्दी में थे
वे पाए गए लापता शिविरों के रजिस्टरों में
जिन्हें घर पंहुचने से पहले ही जला दिया गया 
आख़िरकार
वे भूल गए थे
पृथ्वी को हमने जड़ें दीं
	
	