कभी तो ऐसा नहीं हुआ कि एक बार चले जाने के बाद एकदम पलटकर देखा ही न हो। अपनी भूल मानता हूँ — कि दूर के किसी गाँव के किसान का पागल बेटा मैं तुम्हे प्यार करता हूँ। तुम्हारी चाह एक नशा है, नशे में तकता हूँ तुम्हारे लौटने की राह। बस, एक बार आ जाओ, हँसो। बस, एक बार, एक बार, बस। वह जो बिलकुल उड़ ही गईं उस बस्ती की ओर वनहंसिनी-सी, पाँखें खोल। तभी से सोया नहीं मैं भी। न सोया कोई और मेरे कंगाल गाँव में। तिल भर प्यार भी न हो तो कैसे जिए कोई? ये यहाँ जंगली कन्द सिझाकर बैठा सोच रहा हूँ, तुम आओगी, आओगी तुम हिरनी की चाल, मेरी अनाहार-खिन्न झोपड़ी में। ...इस वक्त यहाँ मरे साँप-सा पड़ा है सूना खेत। और मैं एक सदी से अनींदी रातों में तुम्हारे आने की उम्मीद लिए गाँव की अलियों-गलियों से ताकता सूने आकाश को, गिनता एक-एक पल। कजरारी ये मायावी आँखें और झरने-सी यह केशराशि खोले कहाँ जा रही हो भला — किसे ढूँढ़ती? मैंने तो तुम्हारे आने की राह में सजा रखे हैं जली घास का गलीचा, धूप में फट गया पत्थर और निरावरण पहाड़। सिर्फ तुम्हारे लिए सजा रखे हैं — आँखों का पानी, सूखा पंजर, गहरा एक निश्वास और मृतकों की आत्माएँ। बस, एक बार आ जाओ, हँसो। बस, एक बार, एक बार, बस।
वह जो नग्न भिखारी बालक है, वह विषण्ण कुष्ठरोगी, वह किसान परीशां, किसी घातक रोग से आक्रान्त वह युवती — सब बैठे हैं तुम्हारी राह देख। कभी तो ऐसा नहीं हुआ कि एक बार चले जाने के बाद एकदम पलटकर देखा ही न हो। पृथ्वी पर जब तुम वृष्टि बनीं, प्रियतमा मेरी। आओ, धारासार आओ। भूखा-प्यासा तुम्हारे दीदार की उम्मीद में बैठा हूँ, अभागे, अकिंचन, दूरस्थ कालाहाण्डी में।
समीर ताँती की कविता : तुमि जेतिया बृष्टि मोर प्रियतमा पृथिवीर (তুমি যেতিয়া বৃষ্টি মোৰ প্ৰিয়তমা পৃথিৱীৰ) का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल असमिया से अनूदित