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पृथ्वी पर प्रेम के चुनिन्दा दावेदार हैं / प्रभात मिलिन्द

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1.

मनुष्य को घृणा नहीं, प्रेम मारता है
घृणा करते हुए हम चौकन्ने रहते हैं

लोग पानी मे डूबकर ज़्यादा मरे हैं
प्यास ने कम आदमियों की जानें ली हैं

हमें धोखे ने कम, भरोसे ने बार-बार मारा है …

सूखी ज़मीनों में दरारें पड़ जाती हैं
फिर भी धरे जा सकते हैं पाँव उन पर

गीली मिट्टी में धँसते हैं पैर
बमुश्किल क़दम आगे बढ़ पाते हैं

2.

ऐसे विदूषक समय में जबकि आदमी
पहाड़ों पर सैर की फोटुएँ अपलोड करने
और मनुष्य होने के दुख और सन्ताप पर
अफ़सोस ज़ाहिर करने का काम
बड़ी सहूलियत से साथ-साथ कर सकता है

और, कार की किस्तों और कुत्तों की नस्लों
पर बहस करना बारिश, संगीत,
दोस्ती और प्रेम से कहीं बड़ा शग़ल है,

वसन्त का हरापन और पलाश के दहकते फूल
क्या फ़क़त हमारी नज़्मों की ख़ब्त भर हैं ?

3.

उस शाम तोहफ़े का रिबन खोलती
उस औरत की आँखें कैसी बुझ गई थीं !

उस पल मुझे एहसास हुआ था
हम अब प्रेम के एकान्त-नागरिक नहीं थे

अपनी ज़रूरतों और उम्मीदों के बरास्ते
हम एक बाज़ार से गुज़र रहे थे

हमारी जेबों में पड़े सिक्के
दरअसल हमारे रिश्तों की सराय थे !