पृष्ठभूमि / प्रतिभा सक्सेना
उन्नत भूधर जिसके शिखरों की नितप्रति नभ के मेघों से चलती आँख-मिचौली,
जिसकी चट्टानों पर ऊषा- संध्याएं अपने हाथों रचती स्वर्णिम रंगोली
शीतल जलकण ले आते पवन झकोरे प्रक्षालित कर चमकाने जिसकी काया!
भू-तल पर अंकित विविध रँगों में होता जीवन पलता पाकर भूधर की छाया!
अंतर का स्नेह स्रोत बन कर बह आता, चट्टानों से क्रीडा कर खिल-खिल हँसता,
धरती की प्यास बुझाता, सिंचित करता, गिरि के चरणों में हरियाली बिखराता!
उस वन में स्थित थे ऋषियों के आश्रम, गूंजती वेद की पावन- मधुर ऋचाएँ,
वह होम-धूम आकाशों में छा जाता, सुलगा करती थीं यज्ञों की समिधाएं!
यह बात पुरानी बहुत कि जब यह धरती, अति घोर-वनों से आपूरित रहती
जल और अन्न के थे भंडार भरे, सोना चाँदी मोती भी थे बिखरे,
कश्यप ऋषि की सन्ततियाँ बसी यहाँ, आवास रचित कर सुख से जहाँ-तहाँ!
दिति-अदिति, रक्षि, दनु, कद्रू औ विनता, ये दक्ष प्रजापति की थीं सभी सुता!
कश्यप ऋषि की पत्नियाँ अनेक रहीं, उनसे ही वंश- बेलियाँ सब विकसीं!
संततियों से परिपूर्ण हुई धरती, वृत्तियाँ सभी की भिन्न हुआ करतीं!
आदित्य, दैत्य, राक्षस और नाग गरुड़, भाई थे वे सब, लेकिन गए बिखर!
आगे गाथा उनकी संततियों की, रुचियों की और विभिन्न वृत्तियों की!
सौहार्द परस्पर कभी नहीं पनपा, हर क्रम में एक निरालापन विकसा!
कुल विकस चले रक्षों के दनुजों के, देवों की परम्परा आदित्यों से!
रुचिकर था सुरा पान वे सुर नामी, पर असुर- राक्षस सदा शक्ति कामी!
हिमगिरि अंचल में देवों की संस्कृति, पाताल लोक था दैत्यों से शासित!
रक्षों-यक्षों की आपस में चलती, जो हो सशक्त करता छीना-झपटी!
दनुजों का वरुण लोक आवास बना, भाता है सबको अपनो में रहना!
किन्नर-गंधर्व कलाओं के प्रेमी, वन बसी शवर औ भिल्लों की श्रेणी!
गिरि वन में पुर थे वानर ऋक्षों के, क्षिति नभ पर नाग गरुड़ विचरण करते!
संसाधन पूरित यह विशाल धरती, सबको सम भाव लिये धारण करती!
पर कहाँ शान्ति से रह पाया मानव जिसका विवेक हर लेते अनगिन मद!
विद्वेष, ईर्ष्या, प्रभुता लिप्साएं,
कर देतीं कुटिल, सरल जीवन राहें!
यह गाथा है उस धरती की जिस पर, ऊपर हिम पर्वत तीन ओर सागर!
उत्तर से दक्षिण, पूरव से पश्चिम,उर्वरा धरा उत्सव पूरित अनुदिन!
धन-धान्य भरा ममता का यह आँचल, कितनी मानव जातियाँ रहीं हिलमिल!
भास्वर प्रकाश ज्योतित करता अग-जग, शुभनाम इसी से पडा देश भारत!
वन सघन, वनचरों से पूरित अविरल,उच्छल जल सरितायें बहतीं कल-कल!
मिथिला में चन्द्रवंश के क्षत्रियजन, सदियों से चलता था उनका शासन!
सरयू के तीर अयोध्यापुर स्थित, सूरजवंशी राजाओंसे शासित!
वन में तप-ध्यान-यज्ञ करते ऋषिवर, विज्ञान-ज्ञान अन्वेषण में तत्पर!
दक्षिणतक सरि-गिरि, वन पुर जन-संकुल विकसित होते कितने ही मानव-कुल!
दक्षिण सागर के बीच बसी लंका, बज रहा जहाँ पर रावण का डंका
चहुँ ओर सागरों से सीमा निर्मित, मय दानव के कौशल से थी सुरचित।
पटरानी मय-कन्या गुणरूपमयी, मैत्री रक्षों-दनुजों की सुदृढ हुई!
उस ओर लंक इस ओर देश भारत, आवाजाही उत्तर से दक्षिण तक!
मैत्री-विवाह संबंध परस्पर थे तो ललकारों से पूर्ण युद्भ होते
जीवन-धारा अविराम बही जाती संसृति का क्रम, गति कभी नहीं रुकती!
इस मृत्यु लोक में कितने लोक बसे, यव, प्लक्ष, शाक औ श्वेत दीप जैसे
भाषायें रूप, रंग सब अलग-अलग, भिन्नता ऊपरी भीतर सब मानव,
सभ्यता पुरानी कोई बहुत नई, सबकी अपनी-अपनी मान्यता रही!
पाताल लोक तक फैली यह धरती, जब यहां दिवस तब वहां रात्रि होती!
सबकी न्यारी ऋतु और वनस्पतियाँ, लगती विरोधमय जीवन पद्धतियाँ!
ऊपरी तत्व अपनी समग्रता से सम्पूर्ण बनाने का उपक्रम करते!
आलोक-तिमिर, दिन-रात, सुख और दुख, सापेक्ष सभी हैं लगते भले विमुख!
भूगोल छोड भारत की बात करें कुछ परम-अर्थ कुछ अपना स्वार्थ करें!
यह बहुत अर्थमय कथा बहुत गहरी, कुछ और थाह लें रख विवेक प्रहरी!
दर्पण में देखें कर पुनरालोकन, जो पाएँ वह सबके हित हो अर्पँण!