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पेंटिंग-3 / गुलज़ार
Kavita Kosh से
खड़खड़ाता हुआ निकला है उफ़क से सूरज
जैसे कीचड़ में फँसा पहिया ढकेला किसी ने
चब्बे-टब्बे-से किनारों पर नज़र आते हैं
रोज़-सा गोल नहीं
उधड़े-उधड़े-से उजाले हैं बदन पर
और चेहरे पर खरोंचे के निशान हैं