भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पेट मैंने उसके एहसास-ए-सख़ावत का भरा / ओम प्रकाश नदीम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पेट मैंने उसके एहसास-ए-सख़ावत<ref>उदारता का भाव</ref> का भरा।
तब बमुश्किल उसने मेरी चाह का कासा<ref>कटोरा</ref> भरा।

अब भी गुंजाइश बहुत है तेरे मेरे दरमियाँ,
निस्फ़<ref>आधा </ref> ख़ाली तू भी है और मैं भी हूँ आधा भरा।

खा रहा हूँ एक मुद्दत से मैं रिश्तों के फ़रेब,
इन सराबों<ref>मृग मरीचिका</ref> से अभी तक दिल नहीं मेरा भरा।

हैसियत तो मैकदे से कम न थी उसकी मगर,
जब उसे परखा गया मुश्किल से पैमाना भरा।

ग़र्क़ होने की तमन्ना फिर से जागी थी मगर,
फिर न वो मौसम ही पलटा और न वो दरया भरा।

हमने अपने ज़र्फ़ का मेयार रक्खा बरक़रार,
जितना ख़ाली हो गया उतना ही दोबारा भरा।

शब्दार्थ
<references/>