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पेड़ों का समकाल / विनोद शाही
Kavita Kosh से
हमारे दौर में
गमलों में उगते पेड़
बोनसाई हो जाते हैं
हमारी अस्मिताओं की तरह
कुछ पेड़
बाज़ार की तरह मुक्त होती
स्त्री की तरह
व्यावसायिक अन्दाज़ में
निकलते फैलते हैं
कुछ दूसरे पेड़
मीडिया की तरह सोच बदलते हैं
दलित की तरह
गौण होकर भी ज़रूरी हो जाते हैं
अलग अलग तरह के अन्य पेड़
मल्टीनेशनल की तरह
विविधता और बहुलता के
प्रतीक हो जाते हैं
किसी प्रवासी से
अजनबी लगते हैं
लेकिन लुभाते हैं
कुछ पेड़
ग्लोबल को लोकल बनाते हैं
विदेशी क़लमों से
संकर होकर भी
अधिक फलते हैं
या फिर बड़े पेड़ की छाया में
जैसे उसके
उपनिवेश की तरह रहते हैं
हाशिये पर उगे कुछ पेड़
भूरे या निपट काले या अपशकुन
आज भी अछूत लगते हैं
क्या अपनी तरह उगना ही
भूल गए हैं पेड़ ?