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पेड़ों के गलियारे / यश मालवीय
Kavita Kosh से
बाँहें फैलाते हैं
पेड़ों के गलियारे
छन-छन कर झरते हैं
अनदेखे उजियारे
राहों में चरर-मरर
करती हैं पत्तियाँ
घाटी में जलती हैं
हरी-हरी बत्तियाँ
बैठा रहता पर्वत
जैसे पलथी मारे
बर्फ़ की बनी सीढ़ी
धूप में पिघलती है
ऊँघती ढलानों से
नदी बह निकलती है
मीठे से लगते हैं
झरने खारे-खारे।