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पेड़ों पर हैं मछलियाँ / प्रतिभा चौहान
Kavita Kosh से
पेड़ों पर हैं मछलियांँ
क्योंकि हमने छीन लिए हैं उनके समुद्र
हमने भेद दिए हैं,
उनकी आँखों में तीर
हमने छीन ली है उन की सिसकियाँ
जिससे वह अपने दर्द कहा करती थीं....
पेड़ों की पत्तियाँ हरी नहीं हैं
बादलों की रंगोली
अब दृश्य-मात्र
जिनसे बनते हैं सिर्फ़ रंगीन चित्र
वे नहीं भर सकते तुम्हारी दरारों में नमी
क्योंकि तुमने भेज दिए हैं
सीने में ज़ख़्म
जो भर चुके हैं दर्द के भारी बोझ से
अब वे बरसते नहीं
फट पड़ते है।