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पेड़-सी चाह / मुदित श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
उम्र बढ़ रही है
गुज़र रही है
या बढ़ रही है
पता नहीं ...
तने के व्यास
छाल की झुर्रियों
में बढ़ोतरी लगी हुई है
भीतर से जितना नम्र कभी था
बाहर से ठीक उतना ही
कठोर हो रहा हूँ,
सदियाँ गुज़ार दी
एक ही जगह पर!
गुज़रा हुआ भी
केवल घटित ही हुआ
जिया हुआ नहीं!
जीने लायक क्या था
क्या है, क्या होगा
पता नहीं!
चाहता हूँ
किसी दिन
किसी के लिए
घटित हो जाऊँ
और वह जी ले!