भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पेड़-1 / अरुण कुमार नागपाल
Kavita Kosh से
आज रंज होता है पेड़ को बुलंदियों पर
बेलौस खड़ा तो है पर लगता है
बेमानी हैं सब के माने
हाँ,यह था महत्त्वाकांक्षी
पर इसने कभी न चाहा था
असाधारण बनना
लोगो ने ज़बरदस्ती बना दिया
दिव्य/अप्रतिम/अनुपम
प्रेमियों ने बाँध दी डोरियां इस पर
प्रेमिकाओं के नाम की
औरतों ने पानी चढ़ाया
बज़ुर्गो ने माँगी मन्नतें
‘जोडों’ ने जोड़े हाथ
और सब की मिली श्रद्धा
तभी एक पेड़ कहलाया‘अदुभुत’
आज लगता है बोझ है प्रतिभा
यह पेड़ न हँस सकता है
न रो सकता है
न खेल सकता है
इसे ढोनी ही होगी
मर्यादा,गंभीरता
शिष्टता,परम्परा
लोग कहते हैं
यह पेड़ ख़ुशनसीब है
और पेड़ कहता है
ख़ुदा भूले से भी
इस जैसा मुकद्दर किसी को न दे