भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पेड़ की विनती / सपना मांगलिक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मत काटो निर्दयता से आखिर मुझमे भी है जान
मैं भी हूँ सजीव तुम्हारी ही तरह
मुझमे भी है बसते प्राण
जब काटते तुम मुझे स्वार्थवश अपने
दर्द होता हमे भी निकल पडते आँसू अपने
जैसे निर्भर तुम जल वायु प्रकाश पर
वैसे ही निर्मित इनसे मेरा भी तन-मन
मागतां नही कभी कुछ भी तुमसे
चाहे फैलाओ कार्वन,धुआं और प्रदूषण
जहर पीकर देता सदा तुमको हरियाली
मिलती मुझी से प्राण वायु तुम्हे कहते जिसे ऑक्सीजन
देता शीतल छाया करता भूमि सरक्षण
खूवसूरत नज़ारे है मुझसे,नदिया चाँद तारे है मुझसे
अपने तुच्छ स्वार्थ की खातिर तुम ओ मानव
व्याप्त होगी वैश्विक गर्मी तव कौन करेगा तुम्हारी रक्षा
बनो समझदार मिलाओ प्रकृति से हाथ,
छोडो दुश्मनी रहो हमेशा मेरे साथ
गर एक भी वृक्ष लगाये जन जन
होगी वैश्विक गर्मी दूर कायम रहे धरा पर जीवन